सिर्फ संविधान लहराने से काम नहीं चला है तो राहुल गांधी अब मनुस्मृति लहराने लगे हैं। वे संविधान पर चर्चा के दौरान संसद में मनुस्मृति लेकर पहुंचे। उन्होंने दावा किया कि भाजपा नेताओं के वैचारिक पूर्वज यानी विनाय़क दामोदर सावरकर संविधान को नहीं मानते थे। वे कहते थे कि संविधान में कुछ भी भारतीय नहीं है। वे मनुस्मृति को मानते थे। हालांकि उसी सदन में शिव सेना के सांसद श्रीकांत शिंदे ने सावरकर की सौवीं जयंती के मौके पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की लिखी एक चिट्ठी पढ़ कर सुनाई, जिसमें उन्होंने सावरकर को भारत का महान सपूत बताया था और आजादी की लड़ाई में उनके योगदान को याद किया था। बहरहाल, अगर सावरकर मनुस्मृति को मानते भी थे और चाहते थे कि मनुस्मृति के हिसाब से देश चले तब भी उनको तो देश चलाने का मौका नहीं मिला और न संविधान बनाने में वे शामिल हुए। संविधान दूसरे लोगों ने बनाया और देश भी दूसरे लोग चला रहे हैं।
फिर मनुस्मृति लेकर और सावरकर का नाम लेकर भाजपा के मौजूदा नेतृत्व पर हमला करने की क्या तुक बनती है? राहुल आरोप लगाते हैं कि भाजपा का मौजूदा नेतृत्व अडानी की मदद करता है तो वह बात समझ में आती है क्योंकि वह मौजूदा नेतृत्व पर हमला है। लेकिन जिस व्यक्ति का नेतृत्व कभी भाजपा या भारतीय जनसंघ को नहीं मिला है उसका जिक्र करके भाजपा पर हमला करने का क्या मतलब है? भाजपा का मौजूदा नेतृत्व पिछड़ी जाति है और प्रधानमंत्री को खुल कर पिछड़ा राजनीति करनें में दिक्कत नहीं होती है। तभी मनुस्मृति के जरिए अगड़ा और पिछड़ा की राजनीति साधने का दांव कामयाब नहीं होता है। इसके उलट मनुस्मृति को गाली देने या उसे फाड़ने, जलाने की बात करने से भाजपा को हिंदू और मुस्लिम का नैरेटिव बनाने का मौका मिलता है। राहुल गांधी के संसद में मनुस्मृति लहराने के बाद दो सवाल उठते हैं। क्या किसी बात का विरोध करने के लिए वे किसी दिन संसद में कुरानशरीफ या बाइबल लहरा सकते हैं? दूसरा, अगर भाजपा के नेता कुरानशरीफ या बाइबल लेकर संसद में आएं और उसमें लिखी बातों को उठा कर किसी समुदाय विशेष को निशाना बनाएं तो कांग्रेस क्या करेगी?