राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के सरसंघचालक Mohan bhagwat अपने एक बयान से चौतरफा घिरे दिख रहे हैं। तभी यह सवाल है कि क्या वे सचमुच घिर गए हैं और अपने ही समर्थकों के बीच अलग थलग हो गए हैं या यह भी संघ की किसी रणनीति का हिस्सा है, जिसमें हर व्यक्ति, संगठन या समूह एक ही विषय पर अलग अलग राय जाहिर करते हैं और इसी प्रक्रिया में मुख्य एजेंडा लोगों तक पहुंचा दिया जाता है?
क्योंकि यह मानने का कोई कारण नहीं दिख रहा है कि मोहन भागवत ने मंदिर और मस्जिद विवाद पर जो कहा उसका समर्थन संघ का मुखपत्र भी नहीं करे। मोहन भागवत ने कुछ समय पहले कहा था कि हर मस्जिद में शिवलिंग ढूंढने की जरुरत नहीं है। फिर उन्होंने पुणे के एक कार्यक्रम में कहा कि मंदिर मस्जिद का विवाद उठा कर कुछ लोग समझते हैं कि वे हिंदुओं के नेता बन जाएंगे। भागवत ने कहा कि अयोध्या का मामला आस्था से जुड़ा था लेकिन हर जगह इस तरह का मुद्दा उठाना ठीक नहीं है।
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इस बयान का समर्थन संघ के मुखपत्र ‘ऑर्गेनाइजर’ ने भी नहीं किया है। ‘ऑर्गेनाइजर’ ने एक संपादकीय में दो टूक अंदाज में लिखा है कि विवादित धार्मिक जगहों की वास्तविक पहचान जाहिर होनी चाहिए क्योंकि यह सभ्यतागत न्याय के लिए जरूरी है। सोचें, एक तरफ भागवत कह रहे हैं कि हर मस्जिद में शिवलिंग न खोजें तो दूसरी ओर उनके संगठन का मुखपत्र कहता है कि खोजना जरूरी है ताकि सभ्यतागत न्याय हो सके! क्या दोनों के विचारों में इतना विरोधाभास हो सकता है?
या थोड़े दिन में यह कहा जाएगा कि दोनों बातें एक ही हैं? संघ के मुखपत्र का संपादकीय कुछ कुछ रिटायर चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के फैसले की तरह है, जिसमें उन्होंने कहा था कि विवादित धर्मस्थलों की पहचान सुनिश्चित करना धर्मस्थल कानून, 1991 का उल्लंघन नहीं किया है। उन्होंने अपने फैसले में धार्मिक पहचान सुनिश्चित करने और उस स्थान पर दावा करने को अलग अलग माना था। लेकिन सबको पता है कि एक बार धार्मिक पहचान सुनिश्चित होने के बाद उस स्थान पर दावा किया जाएगा और तब हर तरह के नए विवाद पैदा होंगे। संघ के मुखपत्र में भी फिलहाल इतना ही कहा गया है कि विवादित धर्मस्थलों की पहचान सुनिश्चित की जानी चाहिए यह सभ्यतागत न्याय के लिए जरूरी है।
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संघ प्रमुख के विचार व्यक्त करने और संघ के मुखपत्र में उसके विरूद्ध विचार के प्रकाशित होने के बीच कई घटनाएं हुई हैं। देश के संत समाज ने भागवत के बयान का विरोध किया। उन्होंने कहा कि हिंदू धार्मिक स्थलों की पहचान या रक्षा करने का काम उनको अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए। यह काम संत समाज करेगा। उसके बाद कट्टर हिंदुत्व की राजनीति करने वाले नेताओं की हर बात का समर्थन करने वाले संत रामभद्राचार्य ने भी भागवत पर निशाना साधा और कहा कि इस तरह की बातों पर वे नसीहत न दें।
सोशल मीडिया में भी राइटविंग के हैंडल्स से भागवत की बड़ी आलोचना हुई और कहा गया कि वे पहले ही कह चुके हैं कि संघ ने हिंदुओं का ठेका नहीं ले रखा है इसलिए वे इससे अलग रहें। सो, समूचा इकोसिस्टम इस मसले पर उनके खिलाफ हो गया। उसके बाद संघ के मुखपत्र का संपादकीय आया, जिसमें भागवत की बजाय हिंदुवादी राजनीति के इकोसिस्टम का समर्थन किया गया। कुल मिला कर यह मामला दिलचस्प हो गया है।