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नीतीश की चतुराई और उनके राज्यसभा सांसद

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार देश के सबसे चतुर नेताओं में से एक हैं। बिना किसी बड़ी पार्टी और बिना किसी बड़े वोट आधार के वे 25 साल से ज्यादा समय से किसी न किसी रूप में सत्ता में हैं। लेकिन इतनी होशियारी के बावजूद राज्यसभा के लिए नेताओं का चयन करते समय उनसे अक्सर गलतियां होती हैं। वे ऐसे लोगों को राज्यसभा में भेजते हैं, जो बागी हो जाते हैं या पार्टी छोड़ कर चले जाते हैं। ताजा मामला हरिवंश का है, जिनको पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में जगह नहीं दी गई है। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह ने कहा कि वे पार्टी की बैठकों में नहीं आते थे। वे जदयू से दूसरी बारी के सांसद हैं और राज्यसभा के उप सभापति हैं। कहा जा रहा है कि वे जदयू से ज्यादा इन दिनों भाजपा की सुन रहे हैं। 

उनसे ठीक पहले पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री रहे आरसीपी सिंह पार्टी से बाहर हुए। उनको भी नीतीश कुमार ने दो बार राज्यसभा का सदस्य बनाया लेकिन दूसरे कार्यकाल में उनकी नीतीश से दूरी बढ़ी और अंततः वे पार्टी से बाहर हुए। उससे पहले उपेंद्र कुशवाहा के साथ भी ऐसा हुआ था। नीतीश कुमार ने उनकी पार्टी में वापसी करा कर राज्यसभा में भेजा था लेकिन बीच में ही इस्तीफा देकर उन्होंने अपनी पार्टी बनाई और भाजपा के साथ मिल कर 2014 का लोकसभा चुनाव लड़े। बाद में नीतीश ने उनको फिर वापस लेकर विधान परिषद में भेजा लेकिन वे वहां से भी इस्तीफा देकर चले गए। 

उनसे पहले 2014 में लोकसभा चुनाव हारने के बाद नीतीश कुमार ने शरद यादव को राज्यसभा भेजा लेकिन 2017 में भाजपा के साथ वापस लौटने के सवाल शरद यादव से उनका मतभेद हुआ और जदयू ने उनकी सदस्यता खत्म करने का आवेदन राज्यसभा के सभापति से किया। हालांकि वे कानून दांव-पेंच से बचे रहे। इसी तरह 2004 के लोकसभा चुनाव में हारने के बाद दिग्विजय सिंह राज्यसभा गए थे लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव से पहले उन्होंने पार्टी और राज्यसभा दोनों छोड़ दी और निर्दलीय लोकसभा का चुनाव बांका से लड़े। जॉर्ज फर्नांडीज से लेकर एनके सिंह, शिवानंद तिवारी और अली अनवर तक के साथ यह कहानी दोहराई गई है। हालांकि किंग महेंद्र, केसी त्यागी जैसे नेता पार्टी के प्रति निष्ठावान बने रहे।

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