One nation one election: यह लाख टके का सवाल है कि क्या विपक्ष पूरी ताकत लगा कर भी पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने की केंद्र सरकार की पहल को रोक पाएगा?
यह सवाल इस योजना के गुणदोष पर नहीं है, बल्कि विपक्ष की ताकत और उसकी तैयारियों पर है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि एक साथ चुनाव कराने की मौजूदा योजना में कई कमियां हैं।
सरकार की मंशा पर भी सवाल है क्योंकि अगर सरकार सचमुच इस योजना को लेकर गंभीर होती तो पिछले 10 साल से, जब से प्रधानमंत्री मोदी इसकी चर्चा कर रहे हैं तब से अभी तक कोई न कोई पहल हुई होती। लेकिन कोई पहल नहीं हुई है। (One nation one election)
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उलटे इसी साल लोकसभा के बाद चार राज्यों के चुनाव हुए हैं और दो दो के ब्लॉक में हुए। ये चारों चुनाव लोकसभा के साथ कराए जा सकते है या बाद में भी एक साथ कराए जा सकते थे।
इसी तरह लोकसभा चुनाव से पहले छह महीने पहले तीन राज्यों के चुनाव हुए। सो, सरकार की मंशा और उसकी तैयारियों पर संदेह है। लेकिन साथ ही यह भी सवाल है कि विपक्ष क्या करेगा?
विपक्ष का विरोध, कुछ पार्टियों का समर्थन: एक साथ चुनाव पर बढ़ती प्रतिक्रिया
विपक्षी पार्टियां इसका विरोध कर रही हैं। इसे लोकतंत्र विरोधी और संघवाद के खिलाफ बता रही हैं लेकिन इस आधार पर तो इसे रोका नहीं जा सकेगा। एक एक करके इस पहल को समर्थन मिलना भी शुरू हो गया है।
सरकार की ओर से दे विधेयकों को मंजूरी दिए जाने के बाद बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कहा कि वे इस पहल का समर्थन करती हैं।
इसी तरह आंध्र प्रदेश की दोनों प्रादेशिक पार्टियों को समर्थन करने में दिक्कत नहीं है क्योंकि उनका चुनाव लोकसभा के साथ ही होता है। तेलंगाना की भारत राष्ट्र समिति भी इसका समर्थन कर सकती है।
नवीन पटनायक की पार्टी बीजू जनता दल ने जरूर यह सवाल उठाया है कि अगर पांच साल में एक बार ही चुनाव होगा तो बीच में किसी सरकार के बहुमत गवांने या सरकार गिर जाने पर क्या होगा?
लेकिन जानकार सूत्रों का कहना है कि यह सवाल सिर्फ दिखावे का है। वैसे भी ओडिशा में भी विधानसभा का चुनाव लोकसभा के साथ ही होता है।
उसने जिस तरह से उप राष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति के खिलाफ लाए गए विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव से दूरी बनाई है उसे देख कर साफ हो गया है कि वह विपक्ष के साथ नहीं है।
विपक्ष की चुनौती: ‘One Nation One Election’ के खिलाफ विरोध और चुनाव बहिष्कार का सवाल
सो, अब सरकार की इस पहले के खिलाफ सिर्फ ‘इंडिया’ ब्लॉक खड़ा है। इस योजना पर अमल के लिए सरकार जो विधेयक ला रही है उन्हें पास कराने के साधारण बहुमत की जरुरत है, जो सरकार के पास है।
ऐसी स्थिति में विपक्षी गठबंधन के पास लोकप्रिय विरोध के अलावा कोई रास्ता नहीं है। सरकार अगर संयुक्त संसदीय समिति बनाती है तो उसमें अपनी राय रखने और विरोध करने के बाद विपक्ष को सड़क उतरना होगा।
इसके खिलाफ जनमत बनाना होगा। अगर इससे भी कामयाबी नहीं मिलती है तो सवाल है कि क्या विपक्ष चुनाव का बहिष्कार करने को तैयार है?
क्या अपने सैद्धांतिक विरोध को आगे बढ़ाते हुए विपक्षी पार्टियां यह कह सकती हैं कि अगर लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए तो वे चुनाव नहीं लड़ेंगे?
या इसका विरोध भी ईवीएम के विरोध की तरह ही होगा? विपक्षी पार्टियां ईवीएम का विरोध करती हैं और उसी से चुनाव भी लड़ती हैं। उसमें जीत गए तो सब ठीक है और अगर हार गए तो विरोध जारी रहेगा।