बेंगलुरू में मंगलवार को विपक्षी पार्टियों की दिन भर बैठक होगी। बताया जा रहा है कि बैठक के एजेंडे में बहुत सी चीजें हैं। पटना में 23 जून को हुई पहली बैठक औपचारिकता थी, जिसमें यह तय हुआ था कि अगली बैठक में बारीकियों पर बातचीत होगी। लेकिन क्या बेंगलुरू में विपक्षी पार्टियां सीट बंटवारे पर बातचीत के लिए राजी हो पाएंगी? यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि कांग्रेस अभी सीट बंटवारे पर बातचीत के लिए तैयार नहीं है। कुछ समय पहले महाराष्ट्र की उसकी सहयोगी पार्टियों शिव सेना उद्धव ठाकरे गुट और एनसीपी ने कहा था कि राज्य की 48 लोकसभा सीटों के बंटवारे पर बात कर लेते हैं। कांग्रेस ने उस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया था, जिसके बाद उस मुद्दे पर फिर बातचीत नहीं हुई।
सोचें, जब कांग्रेस एक राज्य में सहयोगियों के साथ सीट बंटवारे पर बातचीत को तैयार नहीं थी तो वह पूरे देश में सीट बंटवारे पर कैसे बात करेगी? असल में कांग्रेस के नेता विपक्षी एकता बनाने के प्रयासों में बिल्कुल शुरुआत में ही किसी किस्म का विवाद नहीं चाहते हैं। उनको पता है की सीट बंटवारा बहुत आसान मामला नहीं है। इसलिए वे पहले गठबंधन की रूप-रेखा तय करना चाहते हैं। इसके अलावा एक साथ लड़ने की सैद्धांतिक सहमति, लड़ाई का वैचारिक आधार, न्यूनतम साझा कार्यक्रम आदि तय होने के बाद ही कांग्रेस सीटों के बंटवारे में जाना चाहती है। ये मुद्दे ऐसे हैं, जिन पर सहमति बन जाएगी।
सीट बंटवारे के अलावा दो और मुद्दे हैं, जिन पर बेंगलुरू में चर्चा होने की बात कही गई है लेकिन वे दोनों मुद्दे भी जटिल हैं। पहला मुद्दा गठबंधन का नाम तय करने का है और दूसरा गठबंधन का नेता तय करने का। बैठक से ठीक पहले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम ने कहा कि समय के साथ बात आगे बढ़ेगी तो गठबंधन का नेता भी तय हो जाएगा। इसका मतलब है कि कांग्रेस अभी नेता तय करने के मूड में नहीं है। हां, यह हो सकता है कि आगे सभी पार्टियों के साथ समन्वय बनाने के लिए किसी नेता को अधिकृत किया जाए। यह भी संभव है कि न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाने के लिए भी किसी नेता का चुनाव हो, जिसके साथ एक कमेटी काम करे।
जहां तक गठबंधन के नाम का सवाल है तो कई पार्टियां कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए में शामिल होने को तैयार नहीं हैं। अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने साफ किया हुआ है कि वह यूपीए का हिस्सा नहीं बनेगी। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस भी यूपीए में शामिल नहीं होगी। कम्युनिस्ट पार्टियां गठबंधन के लिए तैयार हैं लेकिन यूपीए में शामिल होने में उनको भी दिक्कत है। दूसरी पार्टियों की हिचक के कारण ही बिहार में महागठबंधन है तो महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी है। इसलिए संभव है कि यूपीए की बजाय नया नाम तय किया जाए। पीडीए यानी प्रोगेसिव डेमोक्रेटिक एलायंस का एक सुझाव है, जिसकी व्याख्या अखिलेश यादव ने पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक के तौर पर किया था। बहरहाल, जो भी बात हो लेकिन इतना तय है कि 18 जुलाई की बैठक में कुछ ठोस पहल होगी।