भारतीय जनता पार्टी ने सात महीने के भीतर दो राज्यों में आदिवासी मुख्यमंत्री बनाया है। पहले छत्तीसगढ़ में विष्णुदेव साय को और फिर ओडिशा में मोहन चरण मांझी को मुख्यमंत्री बनाया गया। अब इस साल तीसरे आदिवासी बहुल राज्य झारखंड में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। सवाल है कि क्या वहां भाजपा का आदिवासी कार्ड चलेगा? 2019 के विधानसभा और 2024 के लोकसभा चुनाव में आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों पर भाजपा का प्रदर्शन बहुत खराब रहा। विधानसभा की 28 आरक्षित सीटों में भाजपा सिर्फ दो सीट पर जीत पाई और लोकसभा में आदिवासी आरक्षित पांचों सीटों पर भाजपा हार गई। भाजपा के आदिवासी मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष समीर उरांव लोहरदगा सीट पर हारे तो आदिवासी कल्याण के केंद्रीय मंत्री रहे अर्जुन मुंडा खूंटी सीट पर हारे। कांग्रेस से आईं गीता कोड़ा सिंहभूम सीट पर तो जेएमएम से आईं सीता सोरेन दुमका सीट पर हारीं। राजमहल सीट पर भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष ताला मरांडी चुनाव हार गए।
यह तब हुआ, जबकि झारखंड के पहले मुख्यमंत्री और बड़े आदिवासी नेता बाबूलाल मरांडी को पार्टी ने प्रदेश अध्यक्ष बनाया है और पार्टी की प्रदेश की पूरी कमान उनके हाथ में सौंपी है। उनकी पार्टी का भाजपा में विलय होने के बाद वे विधायक दल के नेता बने थे और बाद में प्रदेश अध्यक्ष बने। उनको इस साल के चुनाव में भाजपा के जीतने पर मुख्यमंत्री पद का दावेदार माना जा रहा है। लेकिन दो आदिवासी मुख्यमंत्री बनाने के बाद क्या भाजपा तीसरा आदिवासी मुख्यमंत्री बनाएगी इस पर प्रश्नचिन्ह है। इस समय देश की राष्ट्रपति आदिवासी हैं। उनके अलावा दो मुख्यमंत्री और देश के सीएजी भी आदिवासी हैं। तभी कहा जा रहा है कि आदिवासी राजनीति नहीं चल पा रही है तो भाजपा 2014 में किए गए गैर आदिवासी के प्रयोग को दोहरा सकती है। यह भी कहा जा रहा है कि छत्तीसगढ़ और ओडिशा दोनों जगह भाजपा ने पहले आदिवासी सीएम का चेहरा प्रोजेक्ट नहीं किया था। पार्टी का मानना है कि चेहरा प्रोजेक्ट करने से नुकसान हो सकता है। सो, अब देखना है कि झारखंड में भाजपा क्या करती है?