केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार पहले भी अपने फैसले पलट चुकी है या यू टर्न कर चुकी है। जिस समय भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार थी तब भी पहले कार्यकाल में नरेंद्र मोदी सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव का बिल वापस लिया था। दूसरे कार्यकाल में किसानों के आंदोलन की वजह से तीन केंद्रीय कृषि कानूनों को वापस लिया गया। लोकतंत्र में यह कोई अनहोनी नहीं है। जन दबाव में सरकारों को फैसले पलटने होते हैं। लेकिन तीसरी बार सरकार बनाने के बाद जितनी जल्दी जल्दी सरकार फैसले पलट रही है या फैसलों पर ब्रेक लगा रही है वह हैरान करने वाला है। सबसे ज्यादा हैरानी इस बात को लेकर है कि सरकार को इन मामलों की संवेदनशीलता का पता है फिर भी क्यों फैसले हो रहे हैं और क्यों वापस हो रहे हैं?
अगर लैटरल एंट्री के जरिए केंद्र सरकार में 45 पदों पर सीधी नियुक्ति के संघ लोक सेवा आयोग के विज्ञापन की बात करें तो क्या केंद्र सरकार या प्रधानमंत्री कार्यालय को इसकी संवेदनशीलता का पता नहीं था? क्या अधिकारी और खुद पीएम नहीं जानते थे कि इस समय आरक्षण का मुद्दा तूल पकड़े हुए है और अगर बिना आरक्षण के 45 पदों पर बहाली होती है तो उसका विरोध होगा? निश्चित रूप से सबको इसकी संवेदनशीलता का पता था फिर भी 17 अगस्त को नियुक्ति का विज्ञापन निकला। तीन दिन तक इसका विरोध हुआ और फिर 20 अगस्त को कार्मिक मंत्रालय ने विज्ञापन वापस लेने के आदेश दिया। ध्यान रहे यह मंत्रालय सीधे प्रधानमंत्री के अधीन आता है।
इसी तरह सरकार को निश्चित रूप से वक्फ बोर्ड कानून में बदलाव की पहल को लेकर भी पहले से अंदाजा होगा कि इसका विरोध होगा। यह भी बेहद संवेदनशील मामला है। फिर भी सरकार ने बिल पेश कर दिया। संसद के पिछले सत्र में इसे पेश किया गया और विपक्षी पार्टियों के साथ साथ सहयोगियों के विरोध के बाद इसे संयुक्त संसदीय समिति यानी जेपीसी के पास भेज दिया गया। उससे भी पहले सरकार ने ब्रॉडकास्ट रेगुलेशन बिल का मसौदा तैयार किया था, जिसे सभी संबंधित पक्षों यानी मीडिया समूहों को दिया गया था। लेकिन वह भी रहस्यमय तरीके से वापस हो गया। जिनको ड्राफ्ट की कॉपी भेजी गई थी उनको इसे लौटाने के लिए कहा गया। इस मामले में भी सरकार को पता था कि अभिव्यक्ति की आजादी का मामला उठेगा, जिस पर सरकार पहले से बैकफुट पर है। फिर भी इसका मसौदा बंटवाया गया।
अब सवाल है कि क्या सचमुच नरेंद्र मोदी की सरकार बहुत कमजोर हो गई है और उसका अपना बहुमत नहीं है, जिसकी वजह से इन तीन मौकों पर सरकार झुकी है और उसने यू टर्न किया है? या किसी खास रणनीति के तहत जान बूझकर सरकार की ओर से विवादित मसले आगे किए जा रहे हैं और फिर पीछे हटा जा रहा है ताकि देश के मतदाताओं में यह मैसेज बने कि भाजपा को बहुमत नहीं देने का क्या नुकसान हो रहा है? एक दूसरी चर्चा यह कि लैटरल एंट्री पर जान बूझकर विवाद कराया गया ताकि उसमें आरक्षण लागू किया जा सके। इसी तरह वक्फ बोर्ड कानून को भी जेपीसी के पास इसलिए भेजा गया ताकि यह मैसेज बने कि सभी पार्टियों से सलाह मशविरा करके इसे लागू किया जा रहा है। सरकार ने इस तरह कुछ समय भी हासिल किया है ताकि राज्यसभा में उसका बहुमत हो जाए। बहरहाल, परदे के पीछे कारण चाहे जो हो लेकिन यह सरल मामला नहीं है। इसे उस तरह देखने की जरुरत नहीं है, जैसे दिखाया जा रहा है।