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सन् 2020 में दुनिया का हर देश महामारी के महाकाल में परीक्षा देते हुए था। परीक्षा नागरिकों की रक्षा की, जान, तकलीफ और आंसू की सच्चाई के आगे सच्चे व्यवहार की।
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सन् 2020 में दुनिया का हर देश महामारी के महाकाल में परीक्षा देते हुए था। परीक्षा नागरिकों की रक्षा की, जान, तकलीफ और आंसू की सच्चाई के आगे सच्चे व्यवहार की। हकीकत है कि अमेरिका, यूरोप, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर याकि सभ्य देश एक-एक जान की चिंता करते हुए पूरे साल दहले, रोते वायरस की सच्चाई स्वीकारते हुए थे जबकि भारत के हम लोग और सरकार पहले दिन से हजारों झूठ से वायरस को नकारे रहे। वैश्विक मीडिया याकि बीबीसी, सीएनएन, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर आदि की टीवी चैनलों में समाचार बुलेटिन 95 प्रतिशत वायरस की खबरें लिए थे और हैं जबकि भारत के टीवी चैनल पांच प्रतिशत भी नहीं। यह फर्क भारत और भारत के 138 करोड़ लोगों की भीड़ के इस सत्य का प्रमाण है कि हमने महामारी के सन् 2020 को कैसे जीया है!
साल के 365 दिन। इसका पहला दिन, पहला-दूसरा-तीसरा महीना देश की बीस प्रतिशत मुस्लिम आबादी की बूढ़ी अम्माओं की इस चिंता का था कि नए कानून से तब हम कैसे इस देश में रह पाएंगे? परदे में रहने वाली 75 साला नूर-उन-निसां आदि बुजुर्ग औरतों ने कड़कड़ाती ठंड-सर्द रातों में टेंट में बैठे यह रोना रोया कि ‘उन्होंने हमें बांट दिया है। इसलिए शाहीन का यह परवाज (उड़ना) है। मैंने इस उम्र में लड़ने का फैसला लिया है’। तो एक मुसलमान ने लिखा- इस देश में सरकार, टीवी मीडिया, सोशल मीडिया सबने मुसलमान की वह घेरेबंदी बना डाली है, जिसका लब्बोलुआब असहिष्णुता, नफरत का शोर है।… साथी देशवासियों मुझसे बात करो। मुझे न समझो पागलों के जरिए। संवाद करो। नफरत के उस शोर से बाहर निकलो, जिसमें कुछ सुना नहीं जा रहा है। शुरू करो एक संवाद। एक मुसलमान से बात करो।
सवाल है बूढ़ी अम्माओं का जनवरी की कड़कड़ाती ठंड में रोते हुए होना और दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में सड़क किनारे किसानों के रोने को मनुष्य की पीड़ा, कष्ट, त्रासदी का मानव संकट मानें या न मानें? पल भर मसले के सत्य को भूलें। सिर्फ इंसान के नाते उन इंसानों पर सोचें जो चिंता, पीड़ा में रोते हुए हैं उन्हें ढाढस देने, चुप कराने, मलहम लगाने का इंसानीपना, मानवीय होने की संवेदना दिखलाएंगे या गाली देंगे कि हरामियों, बदमाशों, दुश्मनों, खालिस्तानियों, पाकिस्तानी एजेंटों! उफ! कितनी तरह की गालियां अपने ही लोगों को। तभी सन् 2020 का भारत अनुभव सवाल लिए हुए कि मष्तिष्क कैसे इतना जड़ और ठूंठ!
तो 21वीं सदी का सन् 2020 क्या मानव इतिहास में मानवीय त्रासदी का भारत अध्याय नहीं है? बिल्कुल है। दुनिया के इतिहास में हमेशा लिखा रहेगा कि सन् 2020 की महामारी में भारत सचमुच अंधेरे का उपमहाद्वीप था। न समझदारी थी, न संवेदना थी और न शर्म, पश्चाताप, खेद व जवाबदेही! इससे भी बड़ी शर्मनाक हकीकत जो उस त्रासदी को कैसे ऐसे भुलाया गया मानो कुछ हुआ ही नहीं!
भारत की हिंदी पत्रकारिता में मौलिक चिंतन, बेबाक-बेधड़क लेखन का इकलौता सशक्त नाम। मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक-बहुप्रयोगी पत्रकार और संपादक। सन् 1977 से अब तक के पत्रकारीय सफर के सर्वाधिक अनुभवी और लगातार लिखने वाले संपादक। ‘जनसत्ता’ में लेखन के साथ राजनीति की अंतरकथा, खुलासे वाले ‘गपशप’ कॉलम को 1983 में लिखना शुरू किया तो ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ में लगातार कोई चालीस साल से चला आ रहा कॉलम लेखन। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम शुरू किया तो सप्ताह में पांच दिन के सिलसिले में कोई नौ साल चला! प्रोग्राम की लोकप्रियता-तटस्थ प्रतिष्ठा थी जो 2014 में चुनाव प्रचार के प्रारंभ में नरेंद्र मोदी का सर्वप्रथम इंटरव्यू सेंट्रल हॉल प्रोग्राम में था।
आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों को बारीकी-बेबाकी से कवर करते हुए हर सरकार के सच्चाई से खुलासे में हरिशंकर व्यास ने नियंताओं-सत्तावानों के इंटरव्यू, विश्लेषण और विचार लेखन के अलावा राष्ट्र, समाज, धर्म, आर्थिकी, यात्रा संस्मरण, कला, फिल्म, संगीत आदि पर जो लिखा है उनके संकलन में कई पुस्तकें जल्द प्रकाश्य।
संवाद परिक्रमा फीचर एजेंसी, ‘जनसत्ता’, ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, ‘राजनीति संवाद परिक्रमा’, ‘नया इंडिया’ समाचार पत्र-पत्रिकाओं में नींव से निर्माण में अहम भूमिका व लेखन-संपादन का चालीस साला कर्मयोग। इलेक्ट्रोनिक मीडिया में नब्बे के दशक की एटीएन, दूरदर्शन चैनलों पर ‘कारोबारनामा’, ढेरों डॉक्यूमेंटरी के बाद इंटरनेट पर हिंदी को स्थापित करने के लिए नब्बे के दशक में भारतीय भाषाओं के बहुभाषी ‘नेटजॉल.काम’ पोर्टल की परिकल्पना और लांच।
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