असम में राज्यसभा की दो सीटों के लिए चुनाव हुए, जिसमें से एक सीट कांग्रेस जीत सकती थी। उसने अपने पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रिपुन बोरा को उम्मीदवार भी बनाया था। लेकिन कांग्रेस ने यह सीट जीतने के लिए कोई प्रयास नहीं किया है। सोचें, चार साल पहले गुजरात की एक सीट बचाने के लिए कैसा प्रयास किया गया था। गुजरात के कांग्रेस विधायकों को कर्नाटक के एक रिसॉर्ट में ले जाकर रखा गया था और डीके शिवकुमार उनकी निगरानी कर रहे थे। ऐन मतदान के दिन सभी विधायकों को गुजरात लाया गया और शक्ति सिंह गोहिल की निगरानी में सभी विधायकों ने वोट डाले। कड़े मुकाबले में बहुत मामूली अंतर से कांग्रेस के तब के कोषाध्यक्ष अहमद पटेल वह सीट जीत पाए थे।
सवाल है कि वैसा या कैसा भी प्रयास कांग्रेस ने असम में क्यों नहीं किया? भाजपा ने जिस समय दूसरी सीट पर अपनी सहयोगी यूपीपीएल का उम्मीदवार उतारा उसी समय कांग्रेस को अलर्ट हो जाना चाहिए था। अपने विधायकों को कांग्रेस वहां से हटाती या पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को गुवाहाटी में बैठाती। लेकिन किसी ने इसमें कोई दिलचस्पी नहीं ली। सोचें, कांग्रेस लगातार राज्यसभा में अपनी सीटें गंवा रही है फिर भी एक सीट बचाने का प्रयास नहीं हुआ।
राज्य की 126 सदस्यों की विधानसभा में कांग्रेस की 27 सीटें हैं। उसे सीपीएम और रायजोर दल के एक-एक विधायकों का समर्थन था और एआईयूडीएफ के 15 विधायकों का भी समर्थन था। इस तरह उसके पास 44 वोट थे और एक सीट जीतने के लिए 43 वोट की जरूरत थी। कांग्रेस मेहनत करती तो यह सीट मिल सकती थी। लेकिन कांग्रेस ने सरेंडर कर दिया और उसे सिर्फ 35 वोट मिले। कांग्रेस ने तरुण गोगोई के बेटे गौरव गोगोई को अखिल भारतीय जिम्मेदारी दी है लेकिन वे भी कहीं प्रयास करते नहीं दिखाई दिए। हिमंता बिस्वा सरमा ने दूसरी सीट जीत कर कांग्रेस को बड़ा झटका दिया है।