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खुदरा और संचार क्षेत्र में अमेरिकी दिलचस्पी

ByNI Political,
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खुदरा और संचार क्षेत्र में अमेरिकी दिलचस्पी
यह सही है कि भारत में लोगों का भरोसा स्थानीय और आस-पड़ोस के दुकानदारों पर बढ़ा है और साथ ही नकदी पर भी लोगों का भरोसा बढ़ा है लेकिन अमेरिकी कंपनियां इसके बावजूद भारत में संचार, खुदरा कारोबार और डिजिटल लेन-देन के कारोबार में जबरदस्त दिलचस्पी ले रही हैं। उनको लग रह है कि इन क्षेत्रों में आने वाले दिनों में भारत में बहुत मौका बनने वाला है। तभी अमेरिकी कंपनियां खास कर तकनीक से जुड़ी कंपनियां में भारत की कंपनियों में हिस्सेदारी खरीद रहे हैं। यह भी कारण बताया जा रहा है कि भारत में चीन को लेकर जिस तरह का विरोध और नफरत का भाव बना है उसमें अमेरिकी कंपनियां अपनी जगह बना सकती हैं।  ध्यान रहे इन दिनों भारत के आम लोगों में डिलीट चाइनीज ऐप्स के अभियान में शामिल होने की होड़ मची है। चीन की कंपनियों की प्रतिस्पर्धी कंपनियां भी इसे बढ़ावा दे रही हैं। तभी अलीबाबा से लेकर पेटीएम तक के कारोबार पर असर होता दिख रहा है। पेटीएम की बजाय गूगल पे पर लोगों का भरोसा बढ़ रहा है। यह महज संयोग नहीं है कि चीन की हिस्सेदारी वाली कंपनी की बजाय लोगों ने गूगल पे पर भरोसा करना शुरू किया और गूगल ने भारत तीन सबसे बड़ी संचार कंपनियों में से एक वोडाफोन-आइडिया में हिस्सेदारी खरीदने का ऐलान किया। खबर है कि गूगल हिस्सेदारी खरीदने के लिए वोडाफोन से बात कर रहा है। यह डिजिटल लेन-देन के बाजार में चल रही प्रतिस्पर्धा का ही नतीजा है। उधर देश की सबसे बड़ी कंपनी रिलायंस ने खुदरा कारोबार और ई-कॉमर्स दोनों में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाई है। रिलांयस ने अमेजन, फ्लिपकार्ट आदि के मुकाबले जियोमार्ट लांच  कर दिया है। और यह भी संयोग नहीं है कि अमेरिका की कंपनियां होड़ लगा कर जियो में हिस्सेदारी खरीद रही हैं। फेसबुक ने इसकी शुरुआत की थी, उसके बाद से अमेरिका की आधा दर्जन कंपनियों ने रिलायंस जियो में हिस्सेदारी खरीद ली। रिलायंस ने भी सिर्फ अमेरिकी कंपनियों को हिस्सेदारी बेची है, जिससे उसे अब तक 78 हजार करोड़ रुपए मिल चुके हैं। रिलायंस का मकसद अपने को कर्जमुक्त कंपनी बनाना है तो अमेरिकी कंपनियों का मकसद रिलायंस के जरिए भारत के खुदरा कारोबार, संचार कारोबार और डिजिटल लेन-देन के कारोबार में हिस्सेदारी बढ़ाना है और चीन विरोधी भावना का अधिकतम फायदा उठाना है।
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