कांग्रेस में दो तरह के नेता हैं। एक वो जिनकी कोई पृष्ठभूमि है, जो किसी बड़े नेता के बेटा-बेटी हैं या जमीनी स्तर पर काम करने की बजाय सीधे पैराशूट से पार्टी में लैंड हुए, ऐसे लोगों में कुछ पूर्व अधिकारी वगैरह हैं। दूसरे जमीनी स्तर से काम करते हुए आगे बढ़े और अपनी जगह बनाई। कांग्रेस के इन दोनों किस्म के नेताओं का बारीकी से विश्लेषण करेंगे तो पता चलेगा कि जमीनी स्तर पर काम करके आगे बढ़े नेता पार्टी नहीं छोड़ते हैं। इनमें कुछ अपवाद होंगे लेकिन आमतौर पर ऐसे नेता अच्छे-बुरे समय में पार्टी के साथ रहते हैं। दूसरी ओर जो पृष्ठभूमि वाले नेता हैं, उनके पार्टी छोड़ने का प्रतिशत बहुत ज्यादा है। अंग्रेजी के एक मुहावरे के हिसाब से वे ड्रॉप ऑफ द हैट पर पार्टी छोड़ सकते हैं। इसमें भी कुछ अपवाद हैं।
कांग्रेस के अदंर और बाहर से सलाह देने वाले ज्यादातर लोग कह रहे हैं कि राहुल ने कैसे लोगों को चुना, जो लगातार पार्टी छोड़ कर जा रहे हैं। इसमें राहुल की गलती यह नहीं है कि ये लोग पार्टी छोड़ कर जा रहे हैं उनकी भूल यह है कि उन्होंने ऐसे लोगों को चुना और आगे बढ़ाया। राहुल ने दस साल पहले जिन लोगों को मनमोहन सिंह की सरकार में मंत्री बनवाया था उनकी सूची देखिए- सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया, मिलिंद देवड़ा, जितिन प्रसाद, भंवर जितेंद्र सिंह, अजय माकन आदि। उन्होंने संगठन में किसे आगे बढ़ाया- अशोक तंवर, अशोक चौधरी, सुखदेव भगत, डॉक्टर अजय कुमार, प्रिया दत्त आदि। इनमें से ज्यादातर लोग पार्टी छोड़ कर जा चुके हैं या पार्टी से नाराज हैं। संजय निरुपम, संजय झा आदि का नाम भी इसमें जोड़ा जा सकता है।
इससे उलट राहुल गांधी ने जहां भी जमीनी नेताओं को आगे बढ़ाया वे साथ अच्छे-बुरे समय में पार्टी के साथ रहे हैं। असल में वंशवादी नेताओं को सत्ता के बिना रहने में मुश्किल है। वे एक निश्चित सीमा से ज्यादा विपक्ष में नहीं रह सकते हैं और अगर उनको लगता है कि आने वाले दिनों में गांधी-नेहरू परिवार सत्ता दिलाने में सक्षम नहीं हो पाएगा तो उन्हें पार्टी छोड़ने में कोई हिचक नहीं है। उन्हें राहुल गांधी से सबक लेना चाहिए था, जिन्होंने पार्टी के दस साल सत्ता में रहने के दौरान न मंत्री पद लिया और न प्रधानमंत्री बनने का प्रयास किया।
जितने भी नेताओं ने कांग्रेस छोड़ी है उन्होंन हर तरह से कांग्रेस की सत्ता का और राहुल गांधी से अपनी करीबी का फायदा उठाया था। 2014 के चुनाव में कांग्रेस के सत्ता से बाहर होने के बाद उनको उम्मीद थी कि पांच साल के बाद फिर सत्ता में वापसी हो जाएगी। पर राज्यों में कांग्रेस के खराब प्रदर्शन और 2019 के लोकसभा चुनाव की हार ने उनकी उम्मीदें तोड़ दीं। अब उनको लग रहा है कि 2024 में भी गांधी-नेहरू परिवार का करिश्मा नरेंद्र मोदी के सामने नहीं चलेगा। सो, उनके साथ रहने का अब कई मतलब नहीं है।
वंशवादी नेताओं की सत्ता भूख
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