केंद्र में 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी थी और दिल्ली के हर्षवर्धन लोकसभा चुनाव जीते थे तो यह माना जा रहा था कि स्वास्थ्य मंत्री के लिए वे स्वाभाविक दावेदार हैं। आखिर दिल्ली में भाजपा की अब तक सिर्फ एक बार बनी सरकार में वे स्वास्थ्य मंत्री थे और काफी अच्छा काम किया था। लेकिन पहली सरकार में उनको स्वास्थ्य मंत्री नहीं बनाया गया। वे इधर-उधर के मंत्रालय में काम करते रहे। दूसरी बार सरकार बनने पर उनको स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया। उनके स्वास्थ्य मंत्री बनने के कुछ दिन बाद ही कोरोना की महामारी शुरू हो गई। खुद डॉक्टर होने की वजह से इस महामारी से लड़ने की वे ज्यादा प्रभावी और बेहतर रणनीति बना सकते थे। लेकिन वे लगातार उलटे-सीधे बयानों और तस्वीरों की वजह से अपनी भद्द पिटवा रहे हैं।
यह समझ में नहीं आने वाली बात है कि किस मजबूरी में हर्षवर्धन उलटे-सीधे बयान दे रहे हैं। क्या बड़ी मुश्किल से मिली स्वास्थ्य मंत्री की कुर्सी बचाए रखने की मजबूरी में वे इस तरह के बयान दे रहे हैं? उनके जैसे अच्छे और भले आदमी से क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि वे बतौर स्वास्थ्य मंत्री यह बयान दें कि भारत में 1.11 फीसदी लोग तो मर रहे हैं, जो दुनिया में सबसे कम है! क्या वे यह नहीं देख रहे हैं कि देश में सवा दो लाख लोगों की मौत हो चुकी? किसी एक बीमारी या महामारी से सवा दो लाख लोगों की मौत को क्या एक-सवा फीसदी के आंकड़ों से न्यायसंगत ठहराया जा सकता है? क्या स्वास्थ्य मंत्री को यह नहीं दिख रहा है कि देश के लोग इलाज, ऑक्सीजन, रेमडेसिविर इंजेक्शन और जरूरी दवाओं के लिए सड़कों पर मारे-मारे फिर रहे हैं? फिर वे कैसे यह कह सकते हैं कि भारत में ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं है? उनके बयान न नैतिक और तथ्यात्मक दोनों तरह से गलत हैं।
हर्षवर्धन की क्या मजबूरी है?
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