ऐसा नहीं है कि पूर्वोत्तर के जिन राज्यों में अगले महीने चुनाव होना है उनमें सिर्फ त्रिपुरा में भाजपा के सामने मुश्किल है। बाकी दोनों राज्यों- नगालैंड और मेघालय में भी स्थिति उसके लिए बहुत अनुकूल नहीं हैं। मेघालय में तो पिछली बार भी वह सिर्फ तीन सीट जीत पाई थी लेकिन इसी आधार पर वह एनपीपी के गठबंधन वाली सरकार में शामिल रही। अब एनपीपी और भाजपा का गठबंधन समाप्त हो गया है और भाजपा को राज्य की सभी 60 सीटों पर अकेले लड़ना है। गठबंधन समाप्त होने के साथ ही सत्तारूढ़ एनपीपी के साथ पार्टी का विवाद भी चल रहा है। हालांकि भाजपा के नेता एनपीपी, कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और कुछ अन्य क्षेत्रीय पार्टियों के अलग अलग लड़ने से अपने प्रदर्शन में सुधार की उम्मीद कर रहे हैं लेकिन ईसाई कार्ड खेलने के बावजूद भाजपा को नुकसान हो सकता है क्योंकि एनपीपी के नेता कोनरेड संगमा ने अपनी स्थिति मजबूत की है और उनकी पार्टी राष्ट्रीय पार्टी भी बन गई है।
नगालैंड में अनोखी स्थिति है। वहां कोई विपक्ष नहीं है। पिछले चुनाव से ठीक पहले भाजपा ने एनपीएफ से तालमेल तोड़ कर एनडीपीपी से तालमेल कर लिया। चुनाव बाद में एनपीएफ को अकेले 26 सीटें मिलीं, जबकि एनडीपीपी को 18 और भाजपा को 12 सीटें मिलीं। भाजपा के समर्थन से एनडीपीपी की सरकार बन गई। बाद में एनपीएफ के 22 विधायक पाला बदल कर एनडीपीपी में चले गए। इसके बाद एनपीएफ के बचे हुए चार विधायकों और दो निर्दलियों ने भी सरकार को समर्थन दे दिया। सो, सभी 60 विधायक सत्तारुढ़ गठबंधन के हैं। लेकिन चुनाव के समय दिक्कत आएगी क्योंकि पिछली बार 40 सीट पर लड़ी एनडीपीपी के अब 42 विधायक हैं, जिसमें एनपीएफ और जदयू से आए विधायक शामिल हैं। भाजपा पिछली बार 20 सीटों पर लड़ी थी और इस बार एनडीपीपी उसको 20 सीट देने की स्थिति में नहीं है। अगले दो हफ्ते में राज्य की राजनीति में कुछ दिलचस्प बदलाव होंगे। नए गठबंधन बनेंगे, जिनके बीच मुकाबला होगा।