किसानों का आंदोलन कैसे खत्म हो यह सरकार को समझ में नहीं आ रहा है। कहीं न कहीं किसान भी फंसा हुआ महसूस कर रहे हैं क्योंकि उन्होंने पहले ही दिन कानून खत्म करने की मांग रखी थी और उस पर अड़े रहे, जिससे पीछे हटना अब मुश्किल हो रहा है। सरकार किसी हाल में कानून खत्म करने पर राजी नहीं है। तभी सवाल है कि दोनों पक्ष इस स्थिति तक कैसे पहुंचे? सरकार ने आंदोलनकारी किसानों से पहले ही बात करने या आंदोलन रोकने का प्रयास क्यों नहीं किया?
क्या नरेंद्र मोदी सरकार से किसानों को लेकर वही गलती हुई है, जो मनमोहन सिंह ने अन्ना हजारे को लेकर की थी? ध्यान रहे अन्ना हजारे कई महीने पहले से प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिख रहे थे कि वे आंदोलन करने दिल्ली आएंगे। उसी तरह जून में कृषि कानूनों को अध्यादेश के जरिए लागू किए जाने के समय से किसान इनका विरोध कर रहे थे और सितंबर के मध्य में कानून पास होने के बाद उन्होंने सरकार को दिल्ली में 26 नवंबर से आंदोलन करने की चेतावनी दी थी। फिर सरकार क्यों नहीं उनके आंदोलन की गंभीरता को समझ सकी?
असल में सरकार इस मामले में धोखे में रही। सितंबर में कानून पास होने के ठीक पहले तक अकाली दल सरकार के साथ था। केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल कानून को किसान के हित में बता कर समर्थन कर रही थीं। दूसरी ओर सरकार को भरोसा था कि पंजाब के किसान हरियाणा होकर ही दिल्ली में घुसेंगे और हरियाणा में भाजपा की सरकार है, जो किसानों को वही रोक लेगी। इसका बड़ा भारी प्रयास भी हुआ। पुलिस ने हाईवे खोद कर, किसानों पर लाठी और पानी बरसा कर रोकने का प्रयास किया पर किसान रूके नहीं।
सरकार को एक बड़ा धोखा भारतीय किसान यूनियन के उत्तर प्रदेश के नेताओं को लेकर हुआ। जानकार सूत्रों का कहना है कि भारतीय किसान यूनियन के टिकैत वाले धड़े और भानु गुट के नेताओं से सरकार के प्रबंधकों की बात हो गई थी। जो भी प्रबंधन करना था वह कर दिया गया था। तभी सरकार इस भरोसे में थी कि उत्तर प्रदेश से किसान नहीं आएंगे और दूसरी ओर पंजाब के किसानों को हरियाणा में रोक दिया जाएगा। सरकार इन कानूनों को लेकर किस कदर धोखे में रही इसका अंदाजा इस बात से भी लगता है कि चार जून से लेकर 14 सितंबर तक कृषि मंत्रालय ने कुल 69 प्रेस रिलीज जारी की, जिसमें से सिर्फ सात बयान इन कानूनों को लेकर थे। सोचें, जिन कानूनों को मील का पत्थर बताया जा रहा था, उनके बारे में सिर्फ सात बयान जारी हुए थे।