ऐसा लग रहा है कि दिल्ली की सीमा पर पिछले 45 दिन से आंदोलन कर रहे किसान सरकार के साथ साथ अदालत से भी टकराव ले रहे हैं। हालांकि उन्होंने खुल कर कुछ नहीं कहा है पर बार बार यह कहना कि हम किसी हाल में कृषि कानूनों के मसले पर अदालत में नहीं जाएंगे, अपने आप में इस बात का संकेत है कि किसान कहीं न कहीं अदालत पर भरोसा नहीं कर रहे हैं। देश में आमतौर पर लोग विवाद की स्थिति में अदालत जाने की बात करते हैं। पर कृषि कानूनों का मसला अदालत में पहुंचा हुआ है फिर भी किसान कह रहे हैं कि वे अदालत में नहीं जाएंगे।
किसानों ने सात जनवरी को अपनी बैठक में कहा कि वे अदालत में नहीं जाएंगे और फिर आठ जनवरी को सरकार से वार्ता के दौरान भी किसानों ने कहा कि वे अदालत में नहीं जाएंगे। वार्ता से बाहर आकर मीडिया से बात करते हुए किसानों ने बताया कि सरकार चाहती है कि वे भी अदालत में जाएं और फैसला अदालत से हो पर किसान अदालत नहीं जाएंगे। यह एक तरह से न्यायपालिका की निष्पक्षता पर भी सवाल है और निश्चित रूप से न्यायपालिका को भी इस पर विचार करना चाहिए कि ऐसे हालात क्यों बने। किसानों ने यह भी कहा है कि वे किसी हाल में धरने की जगह से नहीं हटेंगे, अदालत के कहने पर भी नहीं हटेंगे। उनका यह कहना अदालत को नाराज कर सकता है।
किसानों का अदालत नहीं जाने का फैसला पहले से था लेकिन पिछले दिनों जब किसान आंदोलन और कृषि कानूनों से जुड़ी याचिकाओं पर पहली सुनवाई में सर्वोच्च अदालत ने किसानों के प्रति सहानुभूति दिखाई और कहा कि जब तक शांतिपूर्ण आंदोलन चल रहा है, तब अदालत उस पर रोक नहीं लगा सकती है क्योंकि यह उनका संवैधानिक अधिकार है, तब किसानों ने अदालत की इस टिप्पणी का कई बार जिक्र किया। पर कोविड-19 के बहाने किसान आंदोलन की तुलना तबलीगी जमात की मरकज से करना किसानों को पसंद नहीं आया है।
आंदोलन की जगह पर कई किसानों ने इस पर हैरानी जताई। उनको लग रहा है कि अदालत की इस टिप्पणी का इस्तेमाल किसानों के आंदोलन को बदनाम करने के लिए किया जा सकता है। वैसे भी पहले दिन से सोशल मीडिया में सत्तारूढ़ पार्टी के आईटी सेल की तरह से, सरकार के मंत्रियों की ओर से पार्टी नेताओं की ओर से किसान आंदोलन को बदनाम किया जा रहा है। अब उनको तबलीगी जमात का एक नया रेफरेंस मिल गया है।
अदालत ने किसानों की सुरक्षा हवाले कहा कि कहीं वहां भी हालात तबलीगी जमात जैसे न हो जाएं। ध्यान रहे निजामुद्दीन के मरकज में तबलीगी जमात के जमावड़े की वजह से हजारों लोग संक्रमित हुए थे। उसके बाद देश के प्रतिबद्ध मीडिया ने पूरे देश में जमात को बदनाम किया था। उसके साथ तुलना से दूसरा खतरा किसानों को यह लग रहा है कि जैसे पुलिस ने बलप्रयोग करके मरकज खाली कराया था वैसे ही अदालती टिप्पणी के बाद सरकार को बलप्रयोग का मौका मिल सकता है। हालांकि किसानों की संख्या और आंदोलन का दायरा देखते हुए यह संभव नहीं लग रहा है।
अदालत से टकराव लेने की जरूरत नहीं!
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