झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के अपने नाम से माइनिंग लीज कराने के मामले की शिकायत बहुत पहले राज्यपाल के पास भेजी गई थी और राज्यपाल ने भी मई से पहले ही उसे चुनाव आयोग को भेज दिया था। मई से आयोग ने इस पर सुनवाई शुरू की थी और करीब तीन महीने की सुनवाई के बाद 25 अगस्त को अपनी सिफारिश राज्यपाल को भेज दी थी। राज्यपाल के पास आयोग की रिपोर्ट आने के बाद राज्य के सत्तारूढ़ गठबंधन के नेताओं ने और बाद में खुद मुख्यमंत्री ने राज्यपाल रमेश बैस से मुलाकात कर रिपोर्ट सार्वजनिक करने को कहा था। लेकिन रिपोर्ट मिलने के बाद दो महीने तक राज्यपाल ने कोई फैसला नहीं किया।
अक्टूबर के अंत में दिवाली के समय जब राज्यपाल अपने गृह प्रदेश छत्तीसगढ़ में थे तब वहां उन्होंने मीडिया के सामने बताया कि उन्होंने चुनाव आयोग की रिपोर्ट को वापस भेजा है और दोबारा राय मांगी है। अब सवाल है कि मई से लेकर नवंबर तक चुनाव आयोग और राज्यपाल के इस मामले में इतनी देरी करने का क्या कारण है? अगर आयोग की नजर में मुख्यमंत्री ने गलत आचरण किया है तो उनकी सदस्यता समाप्त होनी चाहिए थी और अगर उनका आचरण गलत नहीं है तो मामले को समाप्त किया जाना चाहिए था।
लेकिन छह महीने तक मामले को लटकाए रहने का कारण कुछ और लगता है। क्या आयोग और राज्यपाल दोनों को पता था कि इसमें गलत कुछ नहीं है और फैसला अदालत में नहीं टिकेगा इसलिए देरी की गई? क्या राज्यपाल को अंदाजा था कि सुप्रीम कोर्ट से इस मामले में क्या आदेश आना है और इसलिए कोई फैसला नहीं किया गया? ध्यान रहे सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस वीएन खरे ने पहले ही चुनाव आयोग को बता दिया था कि इसमें कुछ भी गड़बड़ी नहीं है। यह भी सवाल है कि क्या राज्य में राजनीतिक अस्थिरता या असमंजस की स्थिति बनाए रखना इसका मकसद है? ध्यान रहे इस मामले से बनी राजनीतिक असमंजस की स्थिति का फायदा उठा कर भाजपा ने कांग्रेस पार्टी को तोड़ने और सरकार अस्थिर करने का कई बार प्रयास किया है। ऐसे में यह संवैधानिक संस्थाओं के दुरुपयोग का मामला भी बनता है।