कई राज्य सरकारों ने नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का विरोध शुरू कर दिया है। जैसा कि हिंदी या भाषा का मामला आते ही सबसे पहले तमिलनाडु में विरोध होता है, वैसा ही इस शिक्षा नीति का पहला विरोध तमिलनाडु में हुआ है और वह भी भाषा के नाम पर ही हुआ है। राज्य की मुख्य विपक्षी डीएमके के नेता एमके स्टालिन ने कहा है कि यह शिक्षा नीति दक्षिण के राज्यों पर हिंदी और संस्कृत थोपने की साजिश है। उन्होंने इसे तमिलनाडु की भाषाई अस्मिता का मुद्दा बना दिया है। वैसे भी नौ-दस महीने बाद तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं इसलिए उनको यह मुद्दा उछालना है।
पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस सरकार ने भी इस शिक्षा नीति पर सवाल उठाया है और कहा है कि इसे तैयार करने में राज्यों की सलाह नहीं ली गई है। हालांकि चाहे स्टालिन का विरोध हो या तृणमूल कांग्रेस का, दोनों में कोई जान नहीं है। सरकार ने साफ कर दिया है कि भाषा का मामला अनिवार्य नहीं है। नीति में यह सुझाव जरूर दिया गया है कि स्थानीय या मातृभाषा में पांचवीं तक के बच्चों को शिक्षा दी जाए पर इस बारे में अंतिम फैसला राज्यों को करना है। सो, स्टालिन के विरोध का मतलब नहीं है क्योंकि फैसला राज्य सरकार को करना है। इसी तरह सलाह लेने की जहां तक बात है तो इस नीति का मसौदा दस्तावेज पिछले एक साल से सार्वजनिक कर दिया गया था, जिस पर दो लाख सुझाव सरकार को मिले थे। अगर पश्चिम बंगाल सरकार को शिक्षा के बारे में कुछ कहना था या इस दस्तावेज को लेकर उसके कुछ सरोकार थे तो वह इस पर आपत्ति करते हुए अपने सुझाव दे सकती थी। पर पहले सरकार या तृणमूल कांग्रेस ने कुछ नहीं किया। अब सिर्फ अगले साल होने वाले चुनाव की वजह से पार्टी इसे मुद्दा बना रही है।