अगर देश में कहीं यूपीए या एनडीए नहीं दिख रहा है तो यह भी हकीकत है कि इस समय देश में कोई तीसरा मोर्चा भी नहीं है। किसी जमाने में भारत में हमेशा एक तीसरा मोर्चा मौजूद रहता था। तमाम वैचारिक मतभेद के बावजूद समाजवादी पार्टियों का एक समूह होता था और वामपंथी पार्टियों का भी अपना एक समूह होता था। कई बार दोनों साथ होते थे। लेकिन अब न समाजवादियों का कोई मोर्चा है और न वामपंथियों का। सब इधर-उधर किसी न किसी मोर्चे में शामिल हैं या अकेले अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यह भी भारतीय राजनीति की एक बड़ी परिघटना है कि अब राजनीति के दो ही ध्रुव बचे हैं। इक्का-दुक्का अपवाद को छोड़ें दें तो सारी पार्टियां इन्हीं के साथ हैं। Politics no third front
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तीसरे मोर्चे की राजनीति करने वाली समाजवादी विचारधारा की पार्टियों में समाजवादी पार्टी अभी अकेले है, चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी और ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस भी अकेले हैं। कांग्रेस के साथ रहे के चंद्रशेखर राव की तेलंगाना राष्ट्र समिति भी अभी अकेले राजनीति कर रही है। ये चारों पार्टियां साथ आकर एक तीसरा मोर्चा बना सकती हैं लेकिन कम से कम अभी इसकी कोई पहल होती नहीं दिख रही है। इसी तरह तीसरा मोर्चा का झंडा उठाए चलने वाली वामपंथियों पार्टियों की हालत बहुत खराब है। उन्होंने कहीं कांग्रेस से हाथ मिलाया हुआ है तो कहीं राष्ट्रीय जनता दल के पीछे चल रहे हैं तो कहीं डीएमके का दामन थाम कर इक्का-दुक्का सीटें हासिल कर रहे हैं। एक तरह से कह सकते हैं कि तीसरे मोर्चे की राजनीति करने वाली पार्टियां पिछले कुछ समय से दूसरे मोर्चे के साथ जुड़ गई हैं। जो बची हैं उनकी राजनीति पर नजर रखने की जरूरत है।
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