रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने गुरुवार को चीन के रक्षा मंत्री जनरल ली शांगफू से दोपक्षीय वार्ता की। दोनों के बीच कई मुद्दों को लेकर चर्चा हुई। करीब तीन साल पहले गलवान घाटी में दोनों देशों के सैनिकों के बीच हुई हिंसक झड़प के बाद पहली बार चीन का कोई शीर्ष नेता भारत आया था और पहली बार दोनों देशों के रक्षा मंत्री दोपक्षीय वार्ता के लिए मिले थे। भले चीन के रक्षा मंत्री शंघाई सहयोग संगठन, एससीओ की बैठक में शामिल होने दिल्ली आए थे लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि दोनों देशों की सहमति और इच्छा से यह वार्ता हुई। क्योंकि एससीओ देशों के विदेश मंत्रियों की भी बैठक दिल्ली में होने वाली है, जिसमें पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी आ रहे हैं लेकिन विदेश मंत्री एस जयशंकर उनसे दोपक्षीय वार्ता नहीं करेंगे।
सो, अगर भारत नहीं चाहता तो चीनी रक्षा मंत्री से भी दोपक्षीय वार्ता नहीं होती। लेकिन वार्ता के अगले दिन एससीओ देशों के रक्षा मंत्रियों की बैठक के बाद राजनाथ सिंह ने ली शांगफू से हाथ मिलाने से इनकार कर दिया। दोनों देशों के बीच हुई दोपक्षीय वार्ता से बड़ी खबर यह बन गई कि राजनाथ ने शांगफू से हाथ नहीं मिलाया। क्या भाजपा और केंद्र सरकार ने इसके जरिए कोई कूटनीतिक और राजनीतिक मैसेज बनवाया है? निश्चित रूप से यह एक बड़ी घटना है, जिसका कर्नाटक और दूसरे राज्यों के चुनाव प्रचार में भाजपा द्वारा इस्तेमाल किया जाएगा। ध्यान रहे इससे पहले विपक्षी पार्टियां कहती थीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीनी राष्ट्रपति शी जिनफिंग को साबरमती के किनारे झूला झुलाया था। अब भाजपा कहेगी कि रक्षा मंत्री ने चीन को हैसियत दिखा दी। कहा जाएगा कि गलवान के बाद पहली बार चीन का कोई बड़ा नेता भारत के किसी नेता से मिला और भारतीय नेता ने उसको हैसियत दिखाई। असलियत चाहे जो लेकिन सोशल मीडिया में एक राजनीतिक नैरेटिव बनने लगा है।