समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने विधान परिषद की चार सीटों के लिए उम्मीदवार तय करते हुए राज्यसभा से अलग फॉर्मूला अपनाया। राज्यसभा में सपा को इस बार नुकसान हुआ है। विधायकों की संख्या के हिसाब से उसे तीन सीटें मिलीं लेकिन उच्च सदन में तकनीकी रूप से सपा के सांसदों की संख्या में सिर्फ एक का इजाफा हुआ। तीन सीटों में से अखिलेश ने एक सीट जाने-माने वकील कपिल सिब्बल को दी, जो निर्दलीय चुनाव लड़े। सो, वे सपा समर्थक सांसद हैं लेकिन सपा के सांसद नहीं हैं। अखिलेश ने दूसरी सीट अपनी सहयोगी पार्टी राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चौधरी को दी। सो, कुल जमा सपा के खाते में एक सीट आई।
लेकिन विधान परिषद के चुनाव में अखिलेश ने यह फॉर्मूला त्याग दिया। गठबंधन बनाए रखने की मजबूरी में उन्होंने एमएलसी की टिकटों का बंटवारा नहीं किया। पिछले विधानसभा चुनाव में सपा के साथ मिल कर लड़ी दो सहयोगी पार्टियां चाहती थीं कि उनको एक-एक सीट मिले। महान दल के केशव मौर्य और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओमप्रकाश राजभर ने एक-एक सीट मांगी थी। उनका कहना था कि सपा ने रालोद को एक राज्यसभा की सीट दी है तो उन दोनों को भी विधान परिषद की एक-एक सीट मिलनी चाहिए। लेकिन अखिलेश ने कोई सीट नहीं छोड़ी। उन्होंने सपा के खाते में आई सभी चार सीटों पर समाजवादी पार्टी के ही पुराने नेताओं को मौका दिया।
इस फैसले के तुरंत बाद महान दल ने सपा से तालमेल खत्म कर लिया। सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी ने भी सपा के फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण बताया है। हालांकि अभी उसने सपा का गठबंधन नहीं छोड़ा है। अखिलेश के फैसले से ऐसा लग रहा है कि उनको गैर यादव पिछड़ी जातियों से अब ज्यादा उम्मीद नहीं है। उन्होंने मुस्लिम-यादव और जाट के समीकरण पर ज्यादा भरोसा दिखाया है।
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