यह बहुत दिलचस्प है कि चुनाव आयोग ने शिव सेना का फैसला कर दिया लेकिन अभी तक लोक जनशक्ति पार्टी का फैसला नहीं हो पाया है। जिस तर्क के आधार पर चुनाव आयोग ने एकनाथ शिंदे गुट को असली शिव सेना माना है और उसे तीर धनुष चुनाव चिन्ह दे दिया है उस तर्क के आधार पर लोक जनशक्ति पार्टी के पशुपति कुमार पारस गुट को असली लोजपा मान कर उसको झोंपड़ी चुनाव दे देना चाहिए। लेकिन 2021 से शुरू हुआ लोक जनशक्ति पार्टी का विवाद अभी तक नहीं निपटा है लेकिन 2022 में शुरू हुए विवाद को चुनाव आयोग ने निपटा दिया, जबकि दोनों की कहानी एक जैसी है। जिस तरह से शिव सेना टूटी तो चुनाव आयोग ने दोनों को अस्थायी नाम और चुनाव चिन्ह दिया उसी तरह से लोक जनशक्ति पार्टी भी दिया। अभी तक पारस और चिराग गुट उसी से काम चला रहे हैं।
तभी ऐसा लग रहा है कि चुनाव आयोग का फैसला भाजपा की चुनावी जरूरत के हिसाब से हुआ है। बिहार में अभी भाजपा को फैसले की जरूरत नहीं है, जबकि महाराष्ट्र में जरूरत है क्योंकि वहां मुंबई सहित कई बड़े शहरों में नगर निगम के चुनाव होने हैं। अगर शिंदे गुट को शिव सेना का नाम और चुनाव चिन्ह नहीं मिलता तो मुंबई की लड़ाई में उसकी मामूली हैसियत भी नहीं बन पाती। तभी उसका फैसला हो गया। बिहार में भी लोकसभा चुनाव से पहले फैसला होगा। कहा जा रहा है कि भाजपा पारस और चिराग गुट में तालमेल कराना चाहती है। अगर तालमेल नहीं होता है तो यह लगभग तय है कि बिहार में चुनाव आयोग का फैसला महाराष्ट्र से अलग होगा। वहां लोजपा के छह में से पांच सांसद पारस गुट के साथ हैं लेकिन असली लोजपा का नाम और चुनाव चिन्ह इकलौते सांसद वाले चिराग पासवान को मिलेगा। वे रामविलास पासवान के बेटे हैं और राजनीतिक विरासत उनके पास है। दूसरे, वे भाजपा के प्रति बहुत नरम हैं और अपने को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हनुमान बताते हैं।