पतंजलि समूह के रामदेव एलोपैथी को लेकर जो कह रहे हैं वह अपनी जगह है। क्योंकि एलोपैथी के ऊपर उनका हमला सिर्फ इसलिए है कि वे अपनी कंपनी के उत्पाद बेच सकें। यह आयुर्वेद बनाम एलोपैथी की नहीं, बल्कि एलोपैथी बनाम रामदेव या एलोपैथी बनाम पतंजलि का विवाद है। इसलिए उसमें जाने की जरूरत नहीं है। पर सवाल है कि अगर एलोपैथी की साख पर सवाल उठे हैं और सोशल मीडिया में लोग इसकी आलोचना कर रहे हैं तो उसके लिए जिम्मेदार कौन है? क्या इसके लिए सरकार की संस्थाएं और झोलाछाप सलाहकार जिम्मेदार नहीं हैं, जिन्होंने बिना सोचे समझे एक के बाद एक प्रयोग किए?
भारत में जांच से लेकर इलाज के प्रोटोकॉल तक सब कुछ बिना किसी रियल डाटा और सर्वेक्षण के हुआ। अब भी भारत में वैक्सीन के सिर्फ क्लीनिकल ट्रायल का डाटा है और रियल ट्रायल का डाटा ब्रिटेन और दुनिया के दूसरे देश जुटा रहे हैं। बहरहाल, सरकार ने कोरोना के इलाज के लिए हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन शुरू किया फिर उसे बंद किया। फिर कहा गया कि बीसीजी के टीकों से मरीजों का बचाव हो रहा है, लेकिन जब गांवों में कोरोना फैला तो चुप्पी साध ली गई। इलाज में आइवरमेक्टिन का इस्तेमाल किया गया, फिर बंद कर दिया गया। प्लाज्मा थेरेपी चालू की गई फिर बंद कर दी गई। फैवीफ्लू और रेमडेसिविर को रामबाण इलाज माना गया और फिर कहा गया कि इनका इस्तेमाल सोच-समझ के करें। मामूली बीमारी में भी स्टेरायड शुरू कर दिया गया और अब कहा जा रहा है कि इसकी वजह से मरीजों की जान गई। ब्लैक फंगस के मामले में भी इसी तरह की कयासबाजी चल रही है। इसके पीछे दवा कंपनियों का खेल भी हो सकता है पर सरकार के झोलाछाप सलाहकार भी कम जिम्मेदार नहीं हैं।
एलोपैथी की साख किसने बिगाड़ी?
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