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भाजपा को क्यों चिंता नहीं है सहयोगियों की?

ByNI Political,
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भाजपा को क्यों चिंता नहीं है सहयोगियों की?
भारतीय जनता पार्टी की 20 के करीब सहयोगी दल एनडीए छोड़ चुके हैं। हाल के दिनों में चार पार्टियों ने एनडीए का साथ छोड़ा है। लेकिन भाजपा में इसे लेकर रत्ती भर चिंता नहीं दिखी। सवाल है कि ऐसा क्यों है कि भाजपा सहयोगी पार्टियों के अलग होने की चिंता नहीं कर रही है? इसका कारण यह है कि भाजपा ने अब अपनी रणनीति बदल ली है। अब चुनाव में उसे सहयोगी पार्टियों की जरूरत नहीं है, बल्कि वह विपक्षी और सहयोगी दोनों पार्टियों के नेताओं को तोड़ कर अपनी पार्टी में मिला ले रही है और उसके दम पर चुनाव लड़ रही है। जैसे अभी उसने अरुणाचल प्रदेश में अपनी सहयोगी जनता दल को तोड़ दिया और उसके सात में से छह विधायकों को अपनी पार्टी में मिला लिया। असल में भाजपा ने अपनी पार्टी का दरवाजा खोल कर रखा है, जिससे होकर सहयोगी और विरोधी सबके नेता पार्टी में आ सकते हैं। जैसे अभी भाजपा को पश्चिम बंगाल और असम में चुनाव लड़ना है तो उसने विपक्षी पार्टियों को तोड़ना शुरू कर दिया है। तृणमूल कांग्रेस के कई बड़े नेता भाजपा में शामिल हो गए हैं तो उधर असम में भी कांग्रेस और बीपीएफ के नेता भाजपा में शामिल हो रहे हैं। असम में भाजपा का बीपीएफ से तालमेल था। दोनों पिछला चुनाव मिल कर लड़े थे पर भाजपा ने बीपीएफ को ही तोड़ दिया और उसके दो बड़े नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल करा लिया। मजबूर होकर बीपीएफ नेता हाग्राम मोहिलारी को गठबंधन से अलग होना पड़ा। अब सोचें, जब अरुणाचल में जदयू के सारे विधायक या असम में बीपीएफ के बड़े नेता सीधे भाजपा में ही आ गए तो भाजपा को सहयोगी की क्या जरूरत है? भाजपा अब इसी रणनीति पर पूरे देश में राजनीति कर रही है। उसने महाराष्ट्र में अपनी सहयोगी शिव सेना और विरोधी कांग्रेस के कई नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल करा लिया। ऐसे ही भाजपा ने अपनी पुरानी सहयोगी टीडीपी के चार राज्यसभा सांसदों को अपनी पार्टी में शामिल करा लिया। असल में भाजपा को जहां भी विधानसभा का चुनाव लड़ना होता है वहां वह दूसरी पार्टियों के छोटे-बड़े नेताओं को तोड़ लेती है इसलिए उसे सहयोगियों की जरूरत नहीं पड़ रही है। लोकसभा चुनाव के समय हो सकता है कि भाजपा इस रणनीति को बदले क्योंकि तब केंद्र की, नरेंद्र मोदी की सत्ता दांव पर होगी।
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