चुनावों में पार्टियों के वोट और सीटें घटती-बढ़ती रहती हैं लेकिन त्रिपुरा में जो हुआ वह संभवतः इस देश के किसी राज्य में नहीं हुआ होगा। कांग्रेस पार्टी को त्रिपुरा में 2013 के विधानसभा चुनाव में 45 फीसदी वोट मिले थे। वह वामपंथी मोर्चे को मिले वोट के लगभग बराबर थी। उस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को सिर्फ 1.87 फीसदी वोट मिले थे। लेकिन पांच साल बाद यानी 2018 के चुनाव में यह तस्वीर बिल्कुल उलटी हो गई। भाजपा को 43 फीसदी वोट मिले और कांग्रेस महज 1.86 फीसदी वोट हासिल कर पाई। दूसरे किसी राज्य में एक चुनाव में वोटों का इतना बड़ा बदलाव शायद कहीं नहीं हुआ है। Congress vote return Tripura
तभी अब सवाल है कि क्या कांग्रेस अपना पुराना वोट हासिल कर पाएगी? वामपंथी पार्टियों का वोट कमोबेश उनके पास है। जब उनके वोट 2018 के विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ नहीं गए तो अब शायद ही वह वोट भाजपा को मिले। सो, लड़ाई कांग्रेस वाले वोट की ही है, जिस पर तृणमूल कांग्रेस ने भी दावेदार की है। इस बीच कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में गए दो बड़े नेता- सुदीप रॉयबर्मन और आशीष साहा कांग्रेस में लौटे हैं। दोनों भाजपा के विधायक हैं और अगले साल होने वाले चुनाव से पहले उन्होंने भाजपा छोड़ कर कांग्रेस में वापसी की है। पहले कहा जा रहा था कि सुदीप रॉयबर्मन तृणमूल में जाएंगे। उनके कांग्रेस में जाने से तृणमूल को झटका लगा है।
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कांग्रेस के नेता मान रहे हैं कि यह राज्य की राजनीति में वापसी का समय है। एक तरफ भाजपा में मुख्यमंत्री बिप्लब देब को लेकर नाराजगी और करीब एक दर्जन विधायकों ने पिछले दिनों उनको हटाने की मांग को लेकर दिल्ली में डेरा डाला था। दूसरी ओर सीपीएम के नेता माणिक सरकार की उम्र 73 साल हो गई है। पार्टी के पास उनका कोई मजबूत विकल्प नहीं है। ऐसे में कांग्रेस के लिए त्रिपुरा में मौका बन रहा है। ध्यान रहे पूर्वोत्तर के राज्यों में समीकरण बदलते देर नहीं लगती है और त्रिपुरा एकमात्र राज्य है, जहां भाजपा अपने दम पर जीती है। असम सहित बाकी राज्यों में तो कांग्रेस के ही नेता भाजपा से मुख्यमंत्री बने हैं।
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