स्वतंत्र होना…पिंजरे में लौटना
आपके पास दो विकल्प हैं – या तो आप स्वयं एक लकीर खींच लीजिये और यह तय कर लीजिये की आप उसे पार नहीं करेंगे और या फिर अपनी बर्बादी का मंजर देखने के लिए तैयार रहिये। राष्ट्रवाद, आज़ादी की सीमा तय कर रहा है। राष्ट्रवाद, प्रजातंत्र और बोलने की आज़ादी का गला घोंट रहा है। आज़ादी के 78वें साल में आप बोल तो सकते हैं, मगर डरते-डरते। आप आसमान में उड़ तो सकते हैं, मगर शाम ढले पिंजरे में लौटने के लिए।... आज जिस आकाश में तिरंगा लहराएगा वह धूसर होगा और उसमें एक सफ़ेद कबूतरी उड़ रही होगी...