pankaj sharma

  • ’चश्मदीद का बहीखाता’ पन्ने-दर-पन्ने

    सरे राह चलते-चलते यूं ही ऐसे-ऐसे मिल गए कि मेरे पास इतने सकारथ संस्मरण इकट्ठे हो गए हैं कि, लगता है, अब मैं उन्हें एक-एक कर लिखना शुरू करने का हक़दार बन गया हूं। लेकिन ज़रा-सी हिचक अब भी बाकी है। संस्मरण-लेखन फूलों की सेज पर गुलाटी खाने का कर्म नहीं है। वह तो दुधारी तलवार पे धावनो है। इस तलवार की धार पर चलूं कि न चलूं? ...लेकिन लिखना ही है तो यह सब क्या सोचना? लिखना ही है तो गोलमोल क्यों लिखना? काहे की उपन्यास शैली? कहानी, कविताओं और उपन्यासों से बात बनती तो फिर बात ही क्या...