Tiranga

  • यादों की बूंदों से झांकते सवाल

    तब सब अपने आप होता था। बिना किसी के कहे हम तिरंगा लहराते थे। बिना किसी के थोपे हम अपने फ़र्ज़ निभाते थे। सोचता हूं, आज हमारे स्वाभाविक-भावों के लिए भी आयोजन-प्रबंधन तकनीकों के इतने उत्प्रेरक क्यों इस्तेमाल किए जाते हैं? क्या हम वैसे नहीं रहे? या, क्या हमारे प्रेरणा-व्यक्तित्व वैसे नहीं रहे? जन-मन की नैसर्गिक तरंगों को बाज़ारू-आवरणों की ज़रूरत क्यों पड़ने लगी है? मैं बचपन में अपने दादा-दादी और नाना-नानी के घर बहुत रहा। दादा-दादी के गांव में तब 50-60 कच्चे मकान हुआ करते थे और नाना-नानी के छोटे-से कस्बे की आबादी डेढ़-दो हज़ार हुआ करती होगी। मेरी...