गिरिजाशंकर
मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय में नाटक ‘मशरिक़ी हूर’ देखते हुए ऐसा लग रहा था मानो छत्तीसगढ़ लोकनाट्य या हबीब तनवीर साहब की कोई प्रस्तुति देख रहा हूँ याकि पुरानी हिन्दी फिल्म जिसमें हर 5-7 मिनट में गाना होता था।
पारसी रंगमंच शैली में तैयार यह नाटक गीत-संगीत से सजा हुआ था। वैसे भी पारसी नाटकों में संवाद तुकबंदी के साथ कविता या शायरी की शक्ल में होता है जो अलग तरह का प्रभाव पैदा करता है।
अब पारसी रंगमंच का तो पूरी तरह लोप हो गया है लेकिन उस शैली में नाटक अब भी होते हैं। ‘मशरिक़ी हूर’ इसी शैली की एक बेहतरीन प्रस्तुति थी जिसे नाट्य विद्यालय के विद्यार्थियों ने डबल कास्ट के साथ प्रस्तुत किया। हर सत्र में चार नाटक विद्यार्थी तैयार कर विद्यालय में ही प्रस्तुति देते हैं जो बेहद आर्कषक और परिपक्व लगते हैं। इसका एक कारण विद्यालय के बाहर से आये मंजे हुए अनुभवी निदेशक के साथ-साथ संगीत, गीत, प्रकाश के विशेषज्ञों द्वारा दिया गया प्रशिक्षण होता है। नाट्य विद्यालय में विद्यार्थियों को केवल अभिनय ही सिखाया जाता है जिसे विस्तार देकर नाटक की अन्य विधाओं में भी प्रशिक्षित किया जा सके इसलिये अन्य विधाओं के विशेषज्ञों को विद्यालय में आमंत्रित किया जाता है। कुछ नाटकों में बैक स्टेज का काम भी विद्यार्थियों ने ही किया है। इस नाटक में भी विद्यार्थी कलाकारों ने कास्ट्यूम वगैरह खुद तैयार किया है।
नाटक का निर्देशन पारसी थियेटर के मशहूर निदेशक जफर संजरी ने किया था। पारसी थियेटर उन्हें विरासत में मिला जिसकी वजह से उसकी धुनें जफर संजरी के पास संजोयी हुई हैं। इसकी झलक इस नाटक में देखने को मिली। जफर संजरी के परिवार में पारसी थियेटर होता था। बाद में वे पारसी थियेटर के ख्यात उस्ताद स्व. मदन कपूर की टोली में शामिल हो गये जिसमें उनके पुत्र अन्नू कपूर व रघुवीर यादव भी उनके साथ थे। वहां से ये दोनों तो एनएसडी चले गये और जफर श्रीराम सेंटर की रेपटरी में आ गये। उसके बाद वे मुम्बई चले गये जहां थियेटर के साथ-साथ वे फिल्मों में संगीत निर्देशन कर रहे हैं। मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय में वे पहले भी आ चुके हैं तथा आगाहश्र कश्मीरी के नाटकों पर सीन तैयार करवा चुके हैं जिसकी प्रस्तुति विद्यार्थियों ने दी थी।
इस बार उन्होंने पं. राधेश्याम कथावाचक द्वारा 1927 में लिखे नाटक ‘मशरिक़ी हूर’ तैयार करवाया। पं. राधेश्याम का पारसी रंगमंच के विकास में ऐतिहासिक योगदान है। उन्होंने हिन्दी में कई नाटक पारसी रंगमंच को दिये। उनके कथ्य में रोचकता के साथ सामाजिक संदर्भ भी होता है। इसी नाटक यानी ‘मशरिक़ी हुर’ में नौकर की भूमिका करने वाला पात्र कहता है कि पशु-पक्षियों में कोई किसी को नौकर नहीं रखता, सिर्फ मनुष्य है जो नौकर रखकर उसका शोषण करता है। इतनी गंभीर बात 90 साल राधेश्यामजी लिख गये जिसका दंश आज भी हम भुगत रहे हैं। यह नाटक मूलतः अत्याचार, शोषण व अन्याय के खिलाफ संघर्ष की कहानी है जिसकी अगुवाई एक नौजवान लड़की हमीदा करती है। ऐसा प्रगतिशील व सामाजिक सरोकार भरा नाटक आज कितना लिखा व खेला जा रहा है, यह गौर करने की बात है।
राधेश्यामजी के लेखन की खूबी है कि वे पौराणिक प्रसंगों को समसामयिक बना देते हैं। उन्होंने अपने ‘हिरणकश्यप’ व ‘भक्त प्रहलाद’ नाटकों को अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम का स्वर दे दिया था। यह इत्तेफाक है कि कुछ दिनों पहले ही मुझे दिल्ली में पं. राधेश्याम का 1915 में लिखा नाटक ‘वीर अभिमन्यू’ देखने को मिला जिसे युवा निदेशक जतिन शर्मा के निर्देशन में विकास बाहरी की रंग संस्था प्रिज्म थियेटर ने मंचित किया था। मुझे यह अच्छी बात लगी कि हिंदी रंग निर्देशकों का ध्यान अन्य विदेशी भाषाओं से अनुवादित नाटकों से हटकर हिन्दी के क्लासिक नाटकों की ओर जा रहा है। इन नाटकों की खूबी यह है कि आधुनिक संदर्भों के साथ अलग-अलग नाट्य शैलियों में मंचित होते हैं जिससे हिन्दी रंगमंच की विविधता में विस्तार होता है और दर्षकों को नाटकों का नया आस्वाद मिलता है।
इतनी अच्छी स्क्रिप्ट हो और जफर संजरी जैसा अनुभवी व पारसी नाट्य परंपरा का वाहक निदेशक तो नाट्य प्रस्तुति का श्रेष्ठ होना लाजिमी है। लेखन और निर्देशन का ऐसा कांबिनेशन कलाकारों से भी बेहतर अभिनय करा लेता है। बाहर के रंगमंच में काम करने वाले कलाकार मोटे तौर पर नाटक का रिहर्सल ही करते हैं, रियाज नहीं जबकि नाट्य विद्यालय में अभिनय के सभी पक्षों का प्रशिक्षण देने के साथ लगातार रियाज कराया जाता है। इससे कलाकारों की अभिनय क्षमता बेहतर हो जाती है जिसकी अभिव्यक्ति इस नाटक में देखने को मिली। किसी नाटक में ‘फ्ला लेस’ एक्टिंग बहुत कम देखने को मिलती है, खास कर सभी कलाकारों का। यह नाटक उन बहुत कम वाले नाटकों में शुमार था।
पारसी थियेटर देखने का मौका तो मुझे कभी नहीं मिला, अलबत्ता पारसी रंगमंच शैली में पहले भी कुछ नाटक देखे हैं। इन नाटकों को देखते हुए ऐसा लगता रहा है कि हम कोई छत्तीसगढ़ लोकनाट्य देख रहे हों। नृत्य गीत अभिनय के साथ संगीत की धुन भी कुछ-कुछ वैसा ही और वैसा ही कटाक्ष और वैसा ही सामाजिक संदर्भ। यहां तक कि हास्य और हास्य की जोकरनुमा प्रस्तुति भी लोकनाट्य और पारसी शैली में एक जैसी लगती है। इसीलिये हबीब तनवीर साहब के नाचा थियेटर लोक नाट्य होते हुए भी पारसी रंगमंच जैसे लगते हैं।
नाट्य विद्यालय की इस प्रस्तुति में यह खास बात रही कि निदेशक को छोड़कर पूरा बैक स्टेज, यहां तक गायन भी मध्यप्रदेश के ही कलाकारों ने सम्हाला और उनका साथ दिया उन्हीं कलाकारों ने जो नाटक में अभिनय कर रहे थे। नाट्य विद्यालय के नाटकों की विडंबना यही है कि दो एक प्रस्तुतियों के साथ ही इन नाटकों की इतिश्री हो जाती है जबकि उनका प्रोडक्शन इतना अच्छा होता है कि वे व्यवसायिक रंगमंच की तरह बरसों तक खेले व दिखाये जा सकते हैं। इसी के चलते नाट्य विद्यालय का अपना रंगमंडल न होने की कमी हमेशा खलती है।
नाट्य विद्यालय की इस नाट्य प्रस्तुति में एक अखरने वाली बात थी नाटक के पहले ब्रोशर में छपी सामग्री का वाचन। जब ब्रोशर दर्शकों में बांट दिया गया है तो उसी को पढ़कर दर्शकों का दस मिनट का वक्त क्यों खराब किया गया? यह अनुभव यहीं नहीं, लगभग हर नाटकों में होता है और मैं हर जगह आग्रह करता हूँ कि ब्रोशर से अलग यदि कोई जानकारी नाटक से संबंधित है तो वह संक्षेप में जरूर दें लेकिन ब्रोशर को पढ़कर दर्षकों का वक्त जाया न करें।
एक और बात। नाट्य विद्यालय में अच्छी परंपरा है कि अतिथियों का स्वागत किसी पुस्तक को भेंटकर किया जाता है। क्या ही बेहतर हो कि किसी अन्य पुस्तक के बजाय नाटक की पुस्तक ही भेंट करें ताकि नाटककार को भी प्रोत्साहन मिले और नये मौलिक नाटक लिखने के लिये वे आगे आयें।