प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने का खर्च सरकारी विद्यालयों की तुलना में नौ गुना अधिक है। तो अनुमान लगाया जा सकता है कि जो माता-पिता खर्च वहन करने में सक्षम नहीं हैं, वे ही अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजते हैं।
भारत में अपने बच्चों के लिए अभिभावकों की पहली पसंद प्राइवेट स्कूल हैं। इन स्कूलों में पढ़ाने का खर्च सरकारी विद्यालयों की तुलना में नौ गुना अधिक है। तो अनुमान लगाया जा सकता है कि जो माता-पिता यह खर्च वहन करने में सक्षम नहीं हैं, वे ही अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजते हैं। वैसे आज भी 55.9 प्रतिशत छात्र सरकारी स्कूलों में ही पढ़ रहे हैं। ग्रामीण इलाकों में तो यह संख्या 66 फीसदी है। यह तथ्य भी गौरतलब है कि कुल स्कूली छात्रों में से एक तिहाई प्राइवेट ट्यूशन लेते हैं। यह स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रतिकूल टिप्पणी है। समझा जा सकता है कि प्राइवेट ट्यूशन की सुविधा से वे बच्चे ही वंचित हैं, जिनके माता-पिता के पास यह खर्च उठाने की क्षमता नहीं है।
आंकड़े कुछ भी और भी सामने आए हैं। मसलन, भारत में 95 प्रतिशत छात्रों की पढ़ाई का खर्च पूरी तरह उनके अभिभावक उठाते हैँ। यानी सिर्फ पांच फीसदी ऐसा छात्र हैं, जिन्हें सरकारी या प्राइवेट स्कॉलरशिप मिल पाती है। ये तमाम आंकड़े इस वर्ष अप्रैल से जून के बीच हुए एक सरकारी सर्वेक्षण से सामने आए हैं। कॉम्पिहेंसिव मॉड्यूलर सर्वे (शिक्षा) नेशनल सैंपल सर्वे (80वें दौर) के तहत किया गया। इससे सामने आया कि सरकारी स्कूलों में प्रति छात्र औसत वार्षिक खर्च 2,863 रुपये है, जबकि प्राइवेट स्कूलों में यह खर्च 25,002 रुपये है। इन दोनों तरह के स्कूलों में मौजूद सुविधाओं के बीच फर्क जग-जाहिर तथ्य है।
शिक्षा की गुणवत्ता का जहां तक सवाल है, तो उस बारे प्राइवेट स्कूलों की सूरत भी कोई बहुत बेहतर नहीं उभरती। वरना, प्राइवेट ट्यूशन का इतना प्रचलन नहीं रहता। कुल मिला कर स्थिति यह है कि जिन परिवारों के पास आर्थिक संसाधन हैं, वे अपने बच्चों को फिर भी अपेक्षाकृत बेहतर प्राइमरी और सेकंडरी शिक्षा दिलवा पाते हैं। बाकी ज्यादातर बच्चों की वही कथा है, जो हर वर्ष शिक्षा की स्थिति संबंधी रिपोर्ट (असर) आदि से उभरती है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इन हालात में सुधार के कोई संकेत नहीं हैं। बल्कि अब तो जो माहौल है, उसमें सीखने-सिखाने का माहौल और बिगड़ रहा है।