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जी-20 और अमेरिका

जी-20 की सार्थकता पर प्रश्नचिह्न लगातार गहरा रहे हैँ। इस मंच के साझा वक्तव्य हर गुजरते वर्ष के साथ अपना वजन गंवाते चले गए हैं। ट्रंप काल में अमेरिका के बदले नजरिए ने इस प्रक्रिया को और तेजी दे दी है। 

दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग में हुए जी-20 शिखर सम्मेलन से संकेत देने की कोशिश हुई कि अमेरिका के बिना भी दुनिया चल सकती है। दक्षिण अफ्रीका में श्वेत समुदाय पर “अत्याचार” का आरोप लगाते हुए डॉनल्ड ट्रंप प्रशासन ने इस समिट का बहिष्कार किया। उसी क्रम में उसने दो टूक कहा कि इस सम्मेलन में कोई साझा वक्तव्य जारी नहीं होना चाहिए। फिर भी बाकी सदस्य देशों के प्रतिनिधि ना सिर्फ जोहान्सबर्ग गए, बल्कि उन्होंने साझा वक्तव्य भी जारी किया। उधर दक्षिण अफ्रीका ने अमेरिका के “जूनियर” प्रतिनिधि को अगले वर्ष की मेजबानी सौंपने से इनकार कर दिया। कहा कि यह औपचारिकता कम-से-कम विदेश मंत्री स्तर पर निभाई जाएगी।

बहरहाल, जोहान्सबर्ग में जो हुआ, उसका प्रतीकात्मक महत्त्व ही है। वरना, एक तो जी-20 की प्रासंगिकता काफी घट चुकी है, दूसरे अमेरिकी उपस्थिति के बिना इसका रहा-सहा महत्त्व भी संदिग्ध हो जाता है। शिखर सम्मेलन स्तर पर जी-20 का आयोजन 2008 की महामंदी के बाद शुरू हुआ था। तब मकसद साझा प्रयास से विश्व अर्थव्यवस्था को संभालना था। तब दुनिया एक ध्रुवीय थी, जिसके तहत लागू श्रम विभाजन में अमेरिका स्थित संस्थाओं ने विभिन्न देशों की भूमिका तय कर रखी थी। मगर उस मंदी ने तत्कालीन समीकरणों को स्थायी रूप से बदल दिया। धीरे-धीरे बनती गई बहु-ध्रुवीय दुनिया में जी-20 के मंच पर आम सहमति बनाना कठिन होता गया है।

यूक्रेन युद्ध, अमेरिका- चीन के बीच बढ़े टकराव, गज़ा में मानव-संहार, और विभिन्न क्षेत्रों में उभरे हॉट-स्पॉट्स के सिलसिले में यह मंच कोई सार्थक भूमिका नहीं निभा पाया है। ट्रंप काल में अमेरिका के बदले नजरिए से ऐसे बहुपक्षीय मंचों की सार्थकता पर प्रश्नचिह्न और गहरे हो गए हैँ। यही कारण है कि जी-20 के साझा वक्तव्य हर गुजरते वर्ष के साथ अपना वजन गंवाते जा रहे हैं। यह सिलसिला जोहोन्सबर्ग में और आगे बढ़ा। अगले वर्ष मयामी में जब अमेरिका इस शिखर सम्मेलन की मेजबानी करेगा, तब भी कहानी इससे बहुत अलग नहीं होगी। ट्रंप काल में अमेरिका अपनी विश्व भूमिका को आमूल रूप से बदल रहा है। उसमें जी-20 जैसे मंच उसे सहायक नहीं लगते, तो इस हकीकत को समझा जा सकता है।

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