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इंडिया गठजोड़ का संकट

इंडिया गठबंधन साझा चेहरा और समान मकसद दिखाने में कमजोर पड़ रहा है। साझा नीतिगत कार्यक्रम की जरूरत तो इसने कभी महसूस ही नहीं की। इसका लाभ भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए को मिल रहा है। 

अब व्यावहारिक रूप में इंडिया गठबंधन राज्य स्तर पर दलों का तालमेल भर रह गया है। इस तरह लोकसभा चुनाव में मिली सीमित सफलता से उज्ज्वल हुईं संभावनाएं आज मद्धम पड़ चुकी हैं। इसकी बड़ी जिम्मेदारी गठबंधन के अंदर के सबसे बड़े दल कांग्रेस पर जाती है, जिसने अपने प्रभाव वाले राज्यों में उदारता नहीं दिखाई। हरियाणा चुनाव में जब उसने आम आदमी पार्टी और समाजवादी पार्टी के लिए पर्याप्त सीटें छोड़ने से इनकार किया, तभी सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने यह अर्थभरी टिप्पणी की थी कि “अपने प्रभाव वाले राज्य में हर पार्टी के निर्णय के अधिकार” का वे सम्मान करते हैं। महीने भर के बाद उत्तर प्रदेश में नौ विधानसभा चुनावों के दौरान उन्होंने अपना ये अधिकार जताया है। उन्होंने प्रदेश कांग्रेस की महत्त्वाकांक्षा के अनुरूप सीटें नहीं छोड़ीं, तो अंततः मजबूरन कांग्रेस को इन उपचुनावों में हिस्सा ना लेने का एलान करना पड़ा।

उधर बिहार में चार उपचुनावों में भी सहयोगी दलों ने कांग्रेस के प्रति कोई सम्मान नहीं दिखाया। वैसे सबसे बड़ा ड्रामा महाराष्ट्र में हुआ है, जहां शिवसेना (उद्धव) ने साफ संदेश दिया है कि वह कांग्रेस को महा विकास अघाड़ी में सबसे बड़ा दल नहीं समझती। चूंकि हरियाणा और जम्मू में बड़ी पराजय के बाद कांग्रेस की हैसियत कमजोर पड़ी है, तो उसे इन राज्यों में सहयोगी दलों के आगे झुकना पड़ रहा है। वैसे याद किया जाए, तो लोकसभा चुनाव के पहले भी मध्य प्रदेश में कांग्रेस और सपा के बीच कड़वाहट हुई थी।

कुल नतीजा यह है कि इंडिया एक साझा चेहरा और समान मकसद दिखाने में लगातार कमजोर पड़ रहा है। साझा नीतिगत कार्यक्रम की जरूरत तो इसने कभी महसूस ही नहीं की। ऐसे में यह समझना गलत नहीं होगा कि यह गठजोड़ असल में मोदी काल में भाजपा के बने वर्चस्व और इन दलों के नेताओं के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों के कथित दुरुपयोग के खिलाफ बनी एकजुटता भर है। अधिक से अधिक यह संसदीय तालमेल का जरिया है। वैसे भाजपा के अपने गठबंधनों में कम समस्या नहीं है, लेकिन भाजपा के नेतृत्व पर वहां कोई चुनौती नहीं है। इसका लाभ एनडीए को मिल रहा है।

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