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साख पर गहरी आंच

आरोप है कि कीमोथेरेपी की अनेक दवाओं की खराब गुणवत्ता के कारण 100 से ज्यादा देशों में मरीजों का इलाज बेअसर रहा। अनेक मरीजों को दवाओं के साइट इफेक्ट्स झेलने पड़े। इन दवाओं की निर्माता अनेक कंपनियां भारतीय हैं।

अंतरराष्ट्रीय पत्रकारों के एक समूह का दावा है कि कीमोथेरेपी में इस्तेमाल होने वाली अनेक दवाएं गुणवत्ता परीक्षण में खरी नहीं उतरीं। द ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म (टीबीईजे) ने कहा है कि इन दवाओं की खराब गुणवत्ता के कारण 100 से ज्यादा देशों में मरीजों का इलाज बेअसर रहा। अनेक मरीजों को दवाओं के साइट इफेक्ट्स झेलने पड़े। इन दवाओं की निर्माता अधिकांश कंपनियां भारतीय हैं। टीबीआईजे के मुताबिक कीमोथेरेपी की 189 दवाओं का परीक्षण अमेरिका की नॉट्रे डेम ऑफ में किया गया। उनमें से लगभग 20 फीसदी खरी नहीं उतरीं। इस रिपोर्ट से जिन भारतीयों कंपनियों पर आंच आई है, उनमें से एक ने एक अखबार से कहा कि इस तरह के परीक्षण निष्कर्षों को वैज्ञानिक तर्कों से समझना कठिन है।

कंपनी ने दावा किया कि उसे अब तक कहीं और से कोई शिकायत नहीं मिली है। अन्य प्रभावित कंपनियां भी संभवतः इसी तरह की दलीलों से अपना बचाव करेंगी। मगर यह स्वीकार करना होगा कि जब कभी ऐसी जांच रपटें मीडिया में आती हैं, तो उनका दूरगामी असर होता है। बेशक अनेक बार ऐसी रिपोर्टों के पीछे कुछ निहित स्वार्थ काम कर रहे होते हैं। दवा उद्योग के भीतर की प्रतिस्पर्धाओं की भी इनके पीछे भूमिका होती है। इसलिए एक पत्रकार समूह के निष्कर्षों को सीधे स्वीकार कर लेने की जरूरत नहीं होती। मगर यह आवश्यक है कि ऐसे आरोपों का सामना किया जाए। बाजार में मौजूद दवाओं के सैंपल लेकर निष्पक्ष विशेषज्ञों की निगरानी में परीक्षण कराना ऐसी चुनौतियों का सटीक समाधान है।

वरना, बनी धारणाएं लंबे में संबंधित कंपनियों की साख को क्षीण कर देती हैं। टीबीआईजे ने दावा किया है कि दो तिहाई से ज्यादा देशों में दवाओं की गुणवत्ता सुनिश्चित करने की व्यवस्था कारगर नहीं है। भारत के बारे में इल्जाम है कि वहां खराब दवाओं की निर्माता कंपनियों को दंडित करने की विश्वसनीय व्यवस्था नहीं है। चिंताजनक पहलू यह है कि इस रिपोर्ट के पहले कई दूसरी बीमारियों की भारत में बनी दवाएं संदेह के घेरे में आ चुकी हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसे संदेहों को दूर करने के कारगर उपाय अब तक नहीं किए गए हैं।

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