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रोग के दो लक्षण

भारत में कोरोना काल के बाद सबसे ज्यादा वृद्धि वैसे आयकर दाताओं की हुई है, जिनके आय का स्रोत शेयर, जायदाद या विदेशी संपत्तियां हैं। इस दौर में ऐसे लोगों की संख्या दो गुना होकर 14 प्रतिशत तक पहुंच गई है।

ये दो खबरें भारतीय अर्थव्यवस्था में लगे, और लगातार बढ़ते जा रहे, एक ही रोग के लक्षण हैं। खास बात यह है कि अगर इनके निहितार्थ को नजरअंदाज कर दिया जाए, तो ऊपर से ये अच्छी खबर महसूस हो सकती हैं। पहली खबर है कि वित्त वर्ष 2024-25 में 303 ऐसी बड़ी कंपनियां रहीं, जिनका खजाना नकदी से भरपूर हो गया और जिन्होंने अपने सारे कर्ज चुका दिए। वैसे भारत के कॉरपोरेट सेक्टर के नकदी भंडार का बढ़ना एक आम ट्रेंड बन चुका है। और जब अपने पास ही काफी पैसा इकट्ठा हो, तो कंपनियां ऋण क्यों लेंगी? पिछले महीने भारतीय रिजर्व बैंक ने वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट बताया था कि 2024-25 में भारतीय कॉरपोरेट सेक्टर के कर्ज में सिर्फ 2.9 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई, जो पांच साल में सबसे कम है।

बाजार विशेषज्ञों के मुताबिक कंपनिया ऋण नहीं ले रही हैं, क्योंकि वास्तविक अर्थव्यवस्था में निवेश की गुंजाइशें कम हैँ। इसके बदले वे इक्विटी के माध्यम से पैसा जुटा कर शेयर बाइबैक या जायदाद अथवा विदेशी संपत्तियों में निवेश कर रही हैं। अब दूसरी खबर पर ध्यान दें। भारत में कोरोना काल के बाद सबसे ज्यादा वृद्धि वैसे आय कर दाताओं की हुई है, जिनके आय का स्रोत शेयर, जायदाद या विदेशी संपत्तियां हैं। 2020-21 के बाद से पिछले वित्त वर्ष तक ऐसे लोगों की संख्या दो गुना होकर 14 प्रतिशत तक पहुंच गई है।

पिछले 31 मार्च तक देश में डीमैट अकाउंट्स की संख्या साढ़े 18 करोड़ तक पहुंच गई, जो 2023-24 की तुलना में 33 प्रतिशत ज्यादा है। यानी अधिक से अधिक लोग वित्तीय बाजार के कारोबार का हिस्सा बन रहे हैं। कारण साफ है। उत्पादन एवं वितरण की अर्थव्यवस्था के बजाय देश में समृद्धि का स्रोत वित्तीय कारोबार एंट रेंट की अर्थव्यवस्था बन गई हैं। भारतीय बाजार के ना बढ़ने की अब आम हो चुकी शिकायत को इन ट्रेंड्स से जोड़ कर देखा जा सकता है। इससे समझना आसान हो जाता है कि कैसे उच्च जीडीपी वृद्धि दर के साथ-साथ आम लोगों के जीवन स्तर में गिरावट दर्ज हो रही है और क्यों आर्थिक गैर-बराबरी नई ऊंचाइयां छू रही है।

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