व्यापार वार्ता के ताजा दौर के बाद जारी बयान से यह जाहिर नहीं होता कि अमेरिका ने जो शर्तें लगाई हैं और भारत ने अपनी जो लक्ष्मण रेखा बता रखी है, क्या उन पर दोनों देश अपना रुख नरम करने को तैयार हैं?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की कथित ‘दोस्ती’ में लौटती ‘गरमाहट’ के बीच भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय व्यापार समझौते पर फिर से वार्ता शुरू हुई है। इसके लिए अमेरिका के व्यापार प्रतिनिधि ब्रेंडन लिंच भारत आए। नई दिल्ली में भारतीय दल के साथ उनकी सात घंटों तक बातचीत हुई। उस बारे में सार्वजनिक तौर पर यही बताया गया है कि वार्ता ‘सकारात्मक और आगे की तरफ नजर रखने वाली’ रही। मतलब यह कि गुजरे महीनों में जो कड़वाहट आई है, उसे भूल कर भविष्य पर नजर रखने का नजरिया दोनों देशों ने अपनाया है। यह भी बताया गया कि वार्ता अगले दौर में जारी रहेगी, हालांकि उस दौर का कोई समय नहीं बताया गया है।
यह जरूर कहा गया कि दोनों पक्षों ने ‘जल्द से जल्द समझौता संपन्न करने के लिए अपने प्रयास तेज करने का फैसला किया है।’ मगर इन बातों से यह जाहिर नहीं होता कि अमेरिका ने जो शर्तें लगाई हैं और भारत ने अपनी जो लक्ष्मण रेखा बता रखी है, क्या उन पर दोनों देश अपना रुख नरम करने को तैयार हैं? अमेरिकी शर्तें हैं कि भारत को कृषि एवं डेयरी समेत अपना पूरा बाजार अमेरिकी कंपनियों के लिए खोलना होगा, रूस से कच्चा तेल खरीदना बंद करना पड़ेगा और ब्रिक्स समूह से अलग होना होगा। पिछली वार्ताओं में भारत ने कृषि एवं डेयरी क्षेत्र की रक्षा को अपनी लक्ष्मण रेखा बताया था।
रूस से तेल खरीदने को वह अपना संप्रभु निर्णय बताता रहा है। स्पष्टतः ब्रिक्स की सदस्यता भी संप्रभु निर्णय के दायरे में आती है। इन मुद्दों पर दोनों देशों का रुख परस्पर विरोधी है। एक तरफ ये ट्रंप प्रशासन की विदेश नीति संबंधी प्राथमिकताओं का हिस्सा हैं, तो दूसरी तरफ भारत के बहुत बड़े जन समुदाय की रोजी-रोटी और देश की प्रतिष्ठा इनसे जुड़ी हुई है। प्रधानमंत्री यह एलान करते रहे हैं कि वे किसी दबाव में किसान और पशुपालकों के हितों से समझौता नहीं करेंगे। अगर ये संकल्प अभी भी कायम है, तो फिर ‘सकारात्मक और अग्र-द्रष्टा’ शब्दों का क्या अर्थ है, उसे समझना आसान नहीं है।