सरकार जीडीपी माप को अपडेट करने जा रही है, तो प्रयास यह होना चाहिए कि जीडीपी की गणना और आम जन के जीवन स्तर में अधिकतम संबंध बने, ताकि नई शृंखला वास्तव में भारत की आर्थिक स्थिति का आईना बन सके।
केंद्र ने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की नई शृखंला शुरू करने के लिए चर्चा पत्र पेश किया है। मकसद फरवरी 2026 से जीडीपी मापने के नए फॉर्मूले को लागू करना है। चर्चा पत्र से संकेत मिले हैं कि सरकार नए फॉर्मूले में किन पहलुओं को जगह देना चाहती है। इसके मुताबिक नई सीरीज़ का आधार वर्ष 2022-23 को बनाया जाएगा। इस तरह नरेंद्र मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद जो नया आधार वर्ष अपनाया था, वह लगभग एक दशक और आगे बढ़ जाएगा। इसके अलावा सरकार का इरादा जीडीपी माप में सक्रिय कंपनियों की नई परिभाषा, एलएलपी कंपनियों के आंकड़ों का अधिक विस्तृत रूप शामिल करना, कॉरपोरेट्स की सालाना रिपोर्ट्स से अधिक सूचनाएं लेना और गैर-निगमीकृत कंपनियों के सालाना सर्वेक्षण से प्राप्त आंकड़ों को शामिल करना है।
साथ ही प्राइवेट कंपनियों, एमएसएमई दायरे में आने वाली अपेक्षाकृत बड़ी गतिविधियों, और कृषि क्षेत्र में इनपुट- आउटपुट अनुपात के मद्देनजर मूल्य-वर्धन (वैल्यू ऐड) की गणना करना है। जीडीपी में मुद्रास्फीति के प्रभाव की गणना की विधि में बड़े परिवर्तन का प्रस्ताव किया गया है। इसके तहत स्थिर मूल्य पर सकल इनपुट और आउटपुट से अलग-अलग मुद्रास्फीति दर को घटाया जाएगा। सरकार का दावा है कि इससे वैल्यू ऐडेड ग्रोथ की अधिक स्पष्ट तस्वीर सामने आएगी। सामान्य नजरिए से देखें, तो गुजरते समय और बदलते हालात के साथ जीडीपी जैसे आंकड़ों की माप को अपडेट करना स्वागतयोग्य प्रयास माना जाएगा।
लेकिन हालिया वर्षों में रहे अनुभव को ध्यान में रखें, तो इस आशंका में भी दम है कि यह सारा प्रयास बिना जमीनी हालत बदले बेहतर सूरत दिखाने का प्रयास ना बन जाए। विकास के पैमानों का मकसद हकीकत को समझना होना चाहिए, ताकि जहां कमजोरियां सामने आएं, उन्हें दूर करने की योजनाबद्ध कोशिश की जाए। जबकि सुधार का बिना इरादा रखे आंकड़ों की बाजीगरी अंततः यथार्थ को ढकने की कोशिश बन जाती है। बेहतर होगा, केंद्र ऐसे मोह में ना पड़े। प्रयास यह होना चाहिए कि जीडीपी की गणना और आम जन के जीवन स्तर में अधिकतम संबंध बने, ताकि नई जीडीपी सीरीज़ वास्तव में भारत की आर्थिक स्थिति का आईना बन सके।
