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ना कानून, ना कोर्ट!

New Delhi, May 22 (ANI): A view of the Supreme Court of India, in New Delhi on Thursday. (ANI Photo/Rahul Singh)

पुनरीक्षण याचिका पर सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने 2-1 के बहुमत से मई में दिए गए फैसले को पलट दिया है। नतीजतन, पर्यावरण मंजूरी की बिना परवाह किए काम शुरू करो और बाद में मंजूरी ले लो- यह चलन जारी रहेगा।

कानून यह है कि कोई किसी भी निर्माण परियोजना पर काम पर्यावरण संबंधी मंजूरी मिलने के बाद ही होना चाहिए। मगर सरकार ने पहले 2017 में एक अधिसूचना और फिर 2021 में ऑफिस मेमॉरेंडम के माध्यम से प्रावधान कर दिया कि बिना पर्यावरण संबंधी हरी झंडी लिए जिन परियोजनाओं पर काम आगे बढ़ चुका है, उन्हें बाद में ऐसी मंजूरी दी जा सकेगी। मुद्दा है कि कोई परियोजना जब पर्यावरण को क्षति पहुंचा चुकी हो, तो फिर उसे मंजूरी देने या ना देने की क्या अहमियत है? बहरहाल, सरकार ने ऐसा प्रावधान किया, तो उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। इस वर्ष मई में सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रावधान को रद्द कर दिया।

दो जजों की बेंच ने उचित निर्णय दिया कि ऐसा करना कानून और उसकी भावना के खिलाफ है। मगर चूंकि इस फैसले से बड़े- बड़े हित प्रभावित हो रहे थे, तो पुनरीक्षण याचिका पर कोर्ट ने तीन जजों की बेंच बनाई। अब उस बेंच ने 2-1 के बहुमत से मई में दिए गए फैसले को पलट दिया है। यानी पर्यावरण मंजूरी की बिना परवाह किए काम शुरू करो और बाद में मंजूरी ले लो- यह चलन जारी रहेगा। मई में फैसला देने वाली बेंच में शामिल रहे जज जस्टिस उज्जल भुइंया नई बेंच में भी थे। उन्होंने असहमत फैसला दिया। इसमें उचित ही उन्होंने दिल्ली में छाये स्मॉग का उदाहरण देते हुए देश में गहराते जा रहे पारिस्थितिकीय संकट का हवाला दिया।

उन्होंने इस दलील को ठुकरा दिया कि मई का फैसला लागू रहने पर अरबों रुपये का निर्माण तोड़ना होगा, इसलिए फैसले को उलट दिया जाए। लेकिन बाकी दो जजों ने 20 हजार करोड़ रुपये की संपत्ति के दांव पर लगे होने का तर्क देते हुए निर्णय को पलट दिया। वैसे उनके सामने विकल्प यह भी था कि कानून के हुए उल्लंघन पर भारी जुर्माना लगाते, उल्लंघन होने देने के दोषी अधिकारियों की जवाबदेही तय करते, और निर्णय देते कि आगे से ऐसा करने की अनुमति नहीं होगी। संदेश साफ है, जब धनी-मानी लोगों के हित जुड़े हों, तो अक्सर कानून की परिभाषा बदल जाती है!

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