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एफआरआई तो जवाब नहीं

एडिटर्स गिल्ड की टीम ने तथ्यों के आधार पर रिपोर्ट नहीं बनाई है, तो राज्य सरकार उसका तार्किक एवं तथ्यात्मक जवाब पेश कर सकती थी। लेकिन वह इतनी नाराज हुई कि उसने पत्रकारों के खिलाफ ही मुकदमा दायर कर दिया है।

एडिटर्स गिल्ड की रिपोर्ट पर मणिपुर सरकार ने जो रुख अपनाया, उससे यह संदेश गया है कि भारत में अब सवाल पूछना अपराध हो गया है। वरना, अगर राज्य सरकार को यह लगता है कि गिल्ड की तरफ से मणिपुर गई पत्रकारों की टीम ने तथ्यों के आधार पर रिपोर्ट नहीं बनाई है, तो वह उसका तार्किक एवं तथ्यात्मक जवाब पेश कर सकती थी। लेकिन मणिपुर सरकार इस रिपोर्ट से इतनी नाराज हुई कि उसने पत्रकारों के खिलाफ ही पुलिस केस दायर कर दिया है। एडिटर्स गिल्ड की यह तीन सदस्यीय समिति ने सात से 10 अगस्त तक मणिपुर का दौरा किया था। वहां जांच समिति के सदस्य कई पत्रकारों, सिविल सोसाइटी कार्यकर्ताओं, हिंसा प्रभावित व्यक्तियों, आदिवासी प्रवक्ताओं और सुरक्षाबलों के प्रतिनिधियों से मिले। उसके आधार पर उन्होंने अपनी रिपोर्ट तैयार की। समिति ने दो सितंबर को अपनी रिपोर्ट जारी की। उसमें कहा गया कि मणिपुर में हिंसा के दौरान राज्य के पत्रकारों ने एक-पक्षीय रिपोर्टें लिखीं, जिनमें लिखी गई बातों की संबंधित संपादकों ने स्थानीय प्रशासन, पुलिस और अन्य सुरक्षाबलों से बात कर पुष्टि नहीं की।

हालांकि रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि हिंसा के माहौल में संभव है कि संपादकों के लिए ऐसा करना संभव नहीं हुआ होगा। इसके अलावा इंटरनेट पर लगे बैन की वजह से हालात बदतर हो गए थे। इंटरनेट प्रतिबंध की वजह से पत्रकारों की एक दूसरे से, अपने संपादकों से, और अपने सूत्रों से बात करने की गुंजाइश घट गई थी। राज्य में सबसे ज्यादा मीडिया संगठन इम्फाल घाटी से संचालित होते हैं। अधिकांश के मालिक मैतेई समुदाय से हैं। घाटी में आठ अखबार हैं और पांच यूट्यूब आधारित समाचार चैनल हैं, जिनको लाखों लोग देखते हैं। जबकि पहाड़ी इलाकों में सिर्फ दो अखबार और सिर्फ तीन यूट्यूब चैनल हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि हिंसा के दौरान यही ‘इम्फाल मीडिया’ मैतेई मीडिया में बदल गया। इसी बात से राज्य सरकार नाराज हो गई। लेकिन अगर एक मीडिया जांच टीम किसी नतीजे पर पहुंची, तो उसका उत्तर जवाबी रिपोर्ट तो हो सकती है, लेकिन मुकदमा दर्ज करना तो उसका जवाब नहीं है। यह लोकतंत्र के खिलाफ है।

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