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स्वतंत्रता का नव-चिंतन

प्रबुद्ध लोगों को अब अपनी मेधा यह समझने में लगानी चाहिए कि हमारा समाज आज किस हाल में है? आजादी के साथ देश ने जो लक्ष्य तय किए थे, उस यात्रा में हम आज कहां खड़े हैं?

भारत अपनी आजादी की 78वीं सालगिरह बदले राजनीतिक माहौल में मना रहा है। इस कारण यह संभव हुआ है कि सामाजिक सरोकार रखने वाले लोग स्वतंत्रता और अधिकारों के बारे में नए सिरे से सोच सकें। गुजरा दशक एक तरफ बड़े दावों, हकीकत से इतर नैरेटिव्स, और उन कथानकों से जगी ऊंची उम्मीदों का रहा, तो दूसरी ओर संविधान प्रदत्त आजादियों पर पहरा एवं अधिकारों के संकुचन से समाज के एक बड़े तबके में भारत की पारंपरिक परिकल्पना को लेकर शक गहराता गया। जनमत का एक बड़ा हिस्सा सामुदायिक टूटन के अहसास से ग्रस्त रहा। लेकिन 2024 में अचानक चीजें बदलती हुई दिखी हैं। उस बदलाव की ताजा मिसाल इसी स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आयोजित ‘हर घर तिरंगा’ अभियान बना है। यह आह्वान प्रधानमंत्री ने किया। तजुर्बा यह है कि पहले जब कभी नरेंद्र मोदी कोई ऐसा आह्वान करते थे, तो उस पर स्वतः-स्फूर्त एवं उत्साह प्रतिक्रिया होती थी। मगर इस बार कहानी उलटी रही है।

सत्ताधारी भाजपा के समर्थक वर्ग तक में इसका खास असर नहीं दिखा। यही हश्र कांवड़ यात्रा के समय उत्तर प्रदेश में नाम की तख्तियां लगाने के आदेश या वक्फ बोर्ड कानून में संशोधन के बिल का भी हुआ है। ये सरकारी पहल समाज में भावावेश पैदा करने या सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को और तीखा करने में नाकाम रही हैं। यह समाज-शास्त्रीय या राजनीतिक अध्ययन का विषय है कि माहौल में यह परिवर्तन क्यों और कैसे हुआ है। बहरहाल, इस बदलाव से राष्ट्रीय विमर्श को सकारात्मक दिशा देने की संभावना जरूर पैदा हुई है। प्रबुद्ध लोगों को अब अपनी मेधा यह समझने में लगानी चाहिए कि हमारा समाज आज किस हाल में है? आजादी के साथ देश ने जो लक्ष्य तय किए थे, उस यात्रा में हम आज कहां खड़े हैं? बेरोजगारी और महंगाई जैसी समस्याओं के साथ बढ़ती गई आर्थिक मुश्किलों के अलावा अब हमारे सामने ढहते इन्फ्रास्ट्रक्चर, सीमाई इलाकों की सुरक्षा में लगती सेंध, लीक होते परीक्षा के पेपर, खेलों में फिसड्डी रहने जैसी हकीकतें भी हैं। इनसे निकलने का रास्ता क्या है, इन प्रश्न पर चर्चा शुरू कर हम स्वतंत्रता दिवस को अधिक सार्थक बना सकते हैँ।

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