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नीचे जाने की होड़!

न्याय मांगने वाले समुदायों की सोच का दायरा ऐसा सिमट गया है कि वे आरक्षण की मांग से ज्यादा फिलहाल सोच नहीं पा रहे हैं। नतीजा यह है कि राजनीतिक दलों के लिए जातीय कार्ड खेलना आसान हो गया है।

झारखंड और पश्चिम बंगाल में कुर्मी समुदाय के लोग खुद को अनुसूचित जन-जाति (एसटी) श्रेणी में शामिल कराने की मांग को लेकर आंदोलनरत हैं। इस समुदाय के लोग अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे हुए थे, लेकिन बुधवार को कलकत्ता हाई कोर्ट ने इसे गैर-कानूनी और असंवैधानिक करार दिया। इसके बाद समुदाय ने धरना तो हटा लिया, लेकिन उन्होंने अलग-अलग जगहों पर विरोध जताने का सिलसिला जारी रखने का एलान किया है। उधर महाराष्ट्र में मराठा और ओबीसी समुदाय के लोग आमने-सामने हैं। मराठा मजबूत समुदाय है और उसकी ओबीसी कोटे के तहत आरक्षण की मांग के आगे राजनीतिक दल झुके हुए हैं। पहले उन्होंने आरक्षित सीटों का कोटा बढ़ा कर रास्ता निकाला। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उस प्रावधान को रद्द कर दिया। तो अब ओबीसी कोटे के तहत ही आरक्षण की मांग मराठा समुदाय ने उठाई है। जबकि ओबीसी महासंघ का कहना है कि ऐसा हुआ, तो इससे उनके हित प्रभावित होंगे। इसलिए वे लोग विरोध पर उतर आए हैं। मुद्दा है कि खुद को अपने से अधिक पिछड़े समुदायों की श्रेणी में शामिल करवाने की होड़ क्यों लगी हुई है?

जिस समय कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी पार्टियों ने महिला आरक्षण के अंदर ओबीसी आरक्षण और जातीय जनगणना की मांग में अपनी आवाज मिला दी है, उन्हें इस पर जरूर सोचना चाहिए कि क्या इससे संबंधित समुदायों का पिछड़ेपन दूर जाएगा? ऐसा होता, तो कुर्मी समुदाय के लोग मौजूदा आंदोलन को क्यों खड़ा करते? और ऐसी मांग करने वाला कुर्मी अकेला समुदाय नहीं है। जाहिर है, बहस भटकी हुई है। मुद्दा यह है कि अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा की व्यवस्था और रोजगार परक अर्थनीति पर अमल के बिना किसी समुदाय के पिछड़ेपन की समस्या का हल नहीं निकल सकता। मगर न्याय मांगने वाले समुदायों की सोच का दायरा ऐसा सिमट गया है कि वे आरक्षण की मांग से ज्यादा फिलहाल सोच नहीं पा रहे हैं। नतीजा यह है कि राजनीतिक दलों के लिए जातीय कार्ड खेलना आसान हो गया है। इसमें सुविधा यह है कि बिना कोई बुनियादी नीतिगत बदलाव के वे खुद को न्याय के पक्ष में खड़ा दिखाने में सफल हो जाते हैँ।

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