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नकल रोकने का कानून पर्याप्त नहीं

उत्तराखंड की सरकार एक कानून लेकर आई है, जिससे परीक्षाओं की पवित्रता बहाल करने की उम्मीद की जा रही है। प्रतियोगिता परीक्षाओं से पहले प्रश्न पत्र लीक होने, परीक्षा के दौरान अनुचित साधनों का इस्तेमाल करने, परीक्षा में नकल करने या कराने जैसी घटनाओं को रोकने के लिए सरकार यह कानून लाई है। असल में प्रश्न पत्र लीक होने और सरकारी नौकरियों की भर्ती में घोटाला होने के खिलाफ उत्तराखंड बेरोजगार यूनियन द्वारा देहरादून में प्रदर्शन किया जा रहा था। यह प्रदर्शन अचानक बहुत बड़ा और हिंसक हो गया तो सरकार ने आनन फानन में एक अध्यादेश के जरिए इस कानून को लागू कर दिया। सरकार ने कैबिनेट की बैठक में अध्यादेश को मंजूरी दी और उसे राज्यपाल के पास भेजा और 24 घंटे के अंदर राज्यपाल ने भी इस कानून को मंजूरी दे दी। सो, अब राज्य की प्रतियोगिता परीक्षाओं में किसी तरह की गड़बड़ी को रोकने के लिए एक बेहद सख्त कानून बन गया है। लेकिन सवाल है कि क्या सिर्फ सख्त कानून लागू कर देने से परीक्षाओं के प्रश्न पत्र नहीं लीक होंगे? चोरी रूक जाएगी? या भर्ती में होने वाले घोटाले बंद हो जाएंगे?

अध्यादेश के जरिए लागू किए गए इस कानून में नकल करने वालों को लिए तीन साल की जेल और पांच लाख रुपए के जुर्माने का प्रावधान किया गया है। दूसरी बार नकल करते या कराते हुए पकड़े जाने पर 10 साल की जेल और 10 लाख रुपए के जुर्माने का प्रावधान है। प्रश्न पत्र लीक होने या दूसरी साजिश से जुड़े मामले में 10 साल से लेकर उम्र कैद और एक करोड़ रुपए से लेकर 10 करोड़ रुपए तक के जुर्माने का प्रावधान इसमें किया गया है। इस लिहाज से कह सकते हैं कि यह एक सख्त कानून है लेकिन पिछला अनुभव बताता है कि सिर्फ सख्त कानून से परीक्षा में न तो नकल रोकी जा सकती है और न प्रश्न पत्र लीक होने की घटनाओं पर काबू पाया जा सकता है और न भर्तियों में होने वाले घोटाले रोके जा सकते हैं। आखिर 1991 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने नकल रोकने का सख्त कानून बनाया था, जिसके तहत नकल को गैर जमानती अपराध बनाया गया था और नकल करते पकड़े जाने पर छात्रों को हथकड़ी लगा कर जेल भेजा जाता था। उस समय सरकार की सख्ती से छात्रों ने परीक्षाएं बीच में छोड़ दीं। बाद में मुलायम सिंह की सरकार ने इस कानून को खत्म कर दिया था। कल्याण सिंह फिर 1997 में सत्ता में लौटे तो यह कानून भी लौटा लेकिन इस बार नकल करने को जमानती अपराध की श्रेणी में रखा गया। जाहिर है सख्त कानून की निरर्थकता सरकार की समझ में आ गई थी।

दूसरे अपराधों में भी सख्त कानूनों की निरर्थकता प्रमाणित हो चुकी है। बलात्कार के आरोपियों के लिए फांसी की सजा का प्रावधान किया गया है लेकिन क्या उससे बलात्कार की घटनाएं कम हो गई हैं? उलटे सबूत मिटाने के लिए बलात्कार के बाद हत्या की घटनाएं ज्यादा होने लगी हैं। हत्या के मामलों में फांसी की सजा का प्रावधान पहले से लेकिन सख्त सजा के प्रावधान के बावजूद हत्या की घटनाओं में भी कमी नहीं आई है। असल में यह कई अध्ययन से प्रमाणित हो चुका है कि सिर्फ सख्त कानून से अपराध नहीं रूक सकता है। किसी भी अपराध के लिए सजा चाहे जैसी हो अगर यह सुनिश्चित किया जाता है कि पकड़े जाने पर निश्चित रूप से सजा होगी तब अपने आप अपराध कम होगा। अपराधी को यह चिंता होगी कि वह पकड़ा जाएगा और पकड़े जाने पर अनिवार्य रूप से सजा होगी तभी वह डरेगा। ऐसा तभी हो सकता है, जब निगरानी तंत्र मजबूत हो, जांच अधिकारी प्रशिक्षत हों, आधुनिक तकनीक से लैस हों और वस्तुनिष्ठ जांच करें और अंत में न्याय प्रणाली ऐसी हो, जहां निश्चित अवधि में स्वतंत्र व निष्पक्ष सुनवाई संभव हो। जाहिर है इसके लिए समूचे तंत्र को बेहतर बनाने की जरूरत है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रतियोगिता परीक्षाओं में प्रश्न पत्र लीक होना या चुनिंदा अभ्यर्थियों के लिए नकल की व्यवस्था करना या किसी भी किस्म की गड़बड़ी लाखों छात्रों का जीवन प्रभावित करती है। लेकिन यह परीक्षा से जुड़ी गड़बड़ियों का सिर्फ एक हिस्सा है। दूसरे कई और कारण हैं, जिनकी वजह से लाखों छात्रों का जीवन प्रभावित हो रहा है। परीक्षाओं में देरी उनमें से एक कारण है। लाखों की संख्या में सरकारी नौकरियों में पद खाली हैं लेकिन सरकारें भर्ती नहीं कर रही हैं। भर्ती निकल रही है तो महीनों तक परीक्षा की तारीखें टलती रहती हैं। छात्रों से मोटी फीस लेकर फॉर्म भरवाए जाते हैं और सालों तक परीक्षा नहीं होती है। फॉर्म भरने के बावजूद छात्रों की परीक्षा की उम्र निकल जाती है। आखिर इसके लिए कौन जिम्मेदार होगा? परीक्षा के बाद नतीजों में हेराफेरी और मेरिट लिस्ट में गड़बड़ी के मामले अलग आते हैं। ऐसे किसी भी कारण से परीक्षा को अदालत में चुनौती दे दी जाती है और उसके बाद सालों तक मामले अदालत में चलते रहते हैं।

यह भी हैरानी की बात है कि इस तरह की गड़बड़ियां सिर्फ राज्यों की परीक्षा में होती हैं। राज्य सरकार में भर्ती के लिए होने वाली प्रतियोगिता परीक्षाओं में ही प्रश्न पत्र लीक होने, नकल कराए जाने या मेरिट लिस्ट में गड़बड़ी की खबरें आती हैं। उसमें भी हिंदी पट्टी के राज्यों में ऐसी घटनाएं ज्यादा होती हैं। दक्षिण भारत में आमतौर पर ऐसी घटनाएं नहीं होती हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश से लेकर मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात तक अनेक भर्ती परीक्षाओं में गड़बड़ी की वजह से परीक्षा टली है और छात्र महीनों, सालों तक इंतजार करते रहे हैं। इस तरह की गड़बड़ी संघ लोक सेवा आयोग की ओर से होने वाली परीक्षाओं में नहीं होती है। सेना में भर्ती के लिए होने वाली एनडीए या सीडीएस की परीक्षाओं में ऐसी गड़बड़ी नहीं होती है। यहां तक कि इंजीनियरिंग और मेडिकल में दाखिले के लिए होने वाली परीक्षाएं भी आमतौर पर साफ सुथरे तरीके से आयोजित हो जाती हैं। इन परीक्षाओं में लाखों की संख्या में छात्र हिस्सा लेते हैं। इसके लिए अब नेशनल टेस्टिंग एजेंसी, एनटीए का गठन हुआ है, जो जेईई और नीट की परीक्षाओं का आयोजन करती है।

क्या राज्य सरकारें इन परीक्षाओं से सबक नहीं ले सकती हैं? जिस तरह से यूपीएससी, एनडीए, सीडीएस, एसएससी, जेईई, नीट आदि की परीक्षाएं होती हैं उसी तरह से राज्यों में भर्ती की परीक्षा नहीं हो सकती है? आखिर ये परीक्षाएं भी सरकारी कर्मचारी ही कराते हैं फिर वहां क्यों नहीं गड़बड़ी होती है और राज्यों में कैसे गड़बड़ी हो जाती है? राज्य सरकारों को इस बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए। क्योंकि यह सिर्फ एक परीक्षा का मामला नहीं है, बल्कि लाखों छात्रों और उनके परिजनों के भविष्य का मामला होता है। भारत दुनिया के सर्वाधिक युवाओं वाला देश है। इसलिए सरकारों को उनके धैर्य की परीक्षा नहीं लेनी चाहिए। एक तो सरकारी नौकरियों में लगातार भर्तियां कम होती जा रही हैं और उनमें भी किसी न किसी गड़बड़ी की वजह से परीक्षाएं अगर टलती हैं तो छात्र, नौजवानों के अंदर गुस्सा बढ़ेगी और निराशा भी बढ़ेगी। उनके गुस्से को ठंडा करने के लिए आनन-फानन में सख्त कानून बना देना कोई हल नहीं है। त्वरित प्रतिक्रिया देने की बजाय समस्या पर समग्रता से विचार की जरूरत है।

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