Naya India

ममता, अखिलेश की दूरगामी राजनीति

ममता बनर्जी और अखिलेश यादव ने चाय के प्याले में तूफान उठाया है। समाजवादी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में हिस्सा लेने के लिए अखिलेश यादव कोलकाता गए थे तो उन्होंने तृणमूल अध्यक्ष और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से उनके कालीघाट स्थित घर पर जाकर मुलाकात की। पश्चिम बंगाल के समाजवादी नेता किरणमय नंदा उनके साथ थे। नंदा दशकों तक पश्चिम बंगाल की लेफ्ट फ्रंट सरकार में मंत्री रहे हैं और बंगाल की राजनीति को बहुत अच्छी तरह से समझते हैं। ममता और अखिलेश की इस मुलाकात के जरिए यह संदेश देने का प्रयास किया गया कि दोनों नेता भाजपा और कांग्रेस से समान दूरी रखेंगे और एक तीसरा मोर्चा बनाने का प्रयास करेंगे। इस बारे में बात करने के लिए ममता बनर्जी 23 मार्च को ओड़िशा के मुख्यमंत्री और बीजू जनता दल के प्रमुख नवीन पटनायक से मिलेंगी।

मीडिया में आई खबरों के मुताबिक ममता और अखिलेश दोनों ने कांग्रेस पर निशाना साधा और कहा कि उसे बॉस की तरह बरताव नहीं करना चाहिए। सवाल है कि तृणमूल कांग्रेस या समाजवादी पार्टी के साथ कांग्रेस ने कहां बॉस जैसा बरताव किया? सपा के साथ कांग्रेस उत्तर प्रदेश में जूनियर पार्टनर के तौर पर चुनाव लड़ी थी और ममता बनर्जी जब तक यूपीए में रहीं तब तक अपनी शर्तों पर ही रहीं। दोनों पार्टियों के बीच चुनाव पूर्व तालमेल कभी नहीं रहा है इसलिए यह कहना बहुत अजीब सा है कि कांग्रेस बॉस की तरह बरताव न करे। असल में ममता आगे की सोच कर अपनी पोजिशनिंग कर रही हैं। उनको पता है कि अगर वे कांग्रेस के साथ गठबंधन में शामिल होती हैं तो भले राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं घोषित हों, लेकिन पूरे देश में अपने आप यह मैसेज बनेगा कि राहुल के चेहरे पर विपक्ष चुनाव लड़ रहा है। अपने आप नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी का मुकाबला बनेगा और यह ममता बनर्जी के लिए पश्चिम बंगाल में बहुत नुकसानदेह होगा।

पश्चिम बंगाल में वोट का जो गणित है वह बहुत बारीक धागे से ममता के पक्ष में झुका हुआ है। पिछले लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के वोट में सिर्फ 2.6 फीसदी का अंतर था। तृणमूल को 43.3 और भाजपा को 40.7 फीसदी वोट मिले थे। वह चुनाव नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए था। दो साल बाद जब विधानसभा चुनाव यानी ममता बनर्जी को मुख्यमंत्री बनाने वाला चुनाव हुआ तो तृणमूल और भाजपा के वोट में 10 फीसदी का अंतर हो गया। तृणमूल को करीब 48 फीसदी और भाजपा को करीब 38 फीसदी वोट मिले। जाहिर है कि ममता बनर्जी को मुख्यमंत्री बनाने के लिए वोट देने वालों में एक बड़ा समूह ऐसा है, जिसने प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी को वोट किया था और आगे भी कर सकता है। इसकी काट यह है कि ममता खुद प्रधानमंत्री पद की दावेदार के तौर पर पेश हों। कांग्रेस के साथ रह कर यह नहीं हो सकता है। लेकिन अगर तीसरा मोर्चा चुनाव लड़ता है तो ममता यह प्रचार कर सकती हैं कि लोग पहला बंगाली प्रधानमंत्री बनाने के लिए वोट दें। इस तरह वे मोदी के मुकाबले बांग्ला अस्मिता का कार्ड खेल सकती हैं। तभी वे कांग्रेस से दूरी बना रही हैं।

धारणा बनवाने के अलावा वोट का गणित भी उनके पक्ष में तभी होगा, जब कांग्रेस और लेफ्ट अलग लड़ें। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और लेफ्ट दोनों अलग अलग लड़े थे और दोनों को मिला कर 12 फीसदी के करीब वोट थे। अगर ममता बनर्जी इन दोनों पार्टियों के साथ गठबंधन में शामिल होती हैं तो उसमें तीन खतरे हैं। पहला तो जो ऊपर बताया कि वे प्रधानमंत्री पद का चेहरा होने का दावा नहीं कर पाएंगी। दूसरा खतरा यह कि भाजपा के साथ गठबंधन का आमने-सामने का मुकाबला बनेगा, जिसमें नरेंद्र मोदी के मुकाबले कोई भी चेहरा टिक पाएगा, इसकी संभावना कम है। तीसरा खतरा यह है कि भाजपा बनाम अन्य की स्थिति में अभूतपूर्व सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो सकता है। ध्यान रहे राजनीति में आंकड़ों का गणित ऐसे काम नहीं करता है कि 2019 में तृणमूल को मिले 43 फीसदी वोट में कांग्रेस और लेफ्ट के 12 फीसदी जुट जाएंगे और उनका वोट 55 फीसदी हो जाएगा। आमने सामने के मुकाबले में ममता या तृणमूल विरोधी वोट, जो पहले कांग्रेस और लेफ्ट में जा सकता था वह भी भाजपा के साथ जा सकता है। इसका बड़ा नुकसान ममता को उठाना पड़ सकता है। वे भाजपा को पिछली बार की तरह 18 सीट जीतने से रोकने की राजनीति कर रही हैं लेकिन आमने सामने के मुकाबले में भाजपा की सीटें बढ़ भी सकती हैं। इसलिए वे चाहेंगी कि लेफ्ट और कांग्रेस अलग लड़ें और ममता विरोधी सेकुलर वोट को भाजपा की ओर जाने से रोकें। वे बंगाल के अल्पसंख्यक वोट की समझदारी को लेकर भरोसे में हैं क्योंकि वह पिछले विधानसभा चुनाव में फुरफुरा शरीफ के इमाम की पार्टी के साथ नहीं गया तो अब किसी और के साथ क्या जाएगा?

जहां तक समाजवादी पार्टी का मामला है तो अखिलेश यादव को पता है कि कांग्रेस के साथ होने का कोई फायदा नहीं है क्योंकि कांग्रेस सपा के वोट आधार में कोई नया वोट नहीं जोड़ती है। रालोद के साथ तालमेल से उनको जाट वोट मिलता है या बसपा से तालमेल में जितना भी हो दलित वोट मिलता है या अपना दल की वजह से थोड़ा ही सही पर कुर्मी वोट जुड़ता है। पर कांग्रेस के पास कोई समर्पित वोट नहीं है। कांग्रेस के साथ 2017 का विधानसभा चुनाव लड़ कर अखिलेश ने इस हकीकत को देख लिया है। ऊपर से उनको पता है कि कांग्रेस के साथ जाने से कांग्रेस के प्रति जो नकारात्मक भाव है वह भी सपा को झेलना होगा। उनको भी लग रहा है कि मोदी बनाम राहुल का मुकाबला हुआ तो उत्तर प्रदेश में मोदी को एकतरफा जीत मिलेगी। वे अपने दम पर धरती पुत्र होने की राजनीति करके कुछ रोक भी सकते हैं, पर राहुल नहीं रोक सकते। इसलिए उन्होंने भी अलग राजनीति करने की सोच बनाई है।

ममता बनर्जी और अखिलेश यादव की इस राजनीति में एक कॉमन बात यह है कि दोनों अपने को कांग्रेस या विपक्षी गठबंधन से अलग करके केंद्र सरकार को एक मैसेज दे रहे हैं। दोनों दिखा रहे हैं कि वे विपक्षी एकता बना कर नरेंद्र मोदी को हराने की राजनीति नहीं कर रहे हैं। इससे दोनों को लग रहा है कि केंद्रीय एजेंसियों के कहर से बचे रह सकते हैं। यह सही भी है क्योंकि केंद्रीय एजेंसियों के कहर से बचेंगे तभी तो अगला चुनाव लड़ पाएंगे। भाजपा को भी पता है कि ममता, अखिलेश या नवीन पटनायक के साथ आने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि तीनों को अपने अपने राज्य में ही लड़ना है। इनमें से किसी के पास दूसरे राज्य में कोई वोट नहीं है। इसलिए भाजपा इनके गठबंधन की ज्यादा परवाह नहीं करेगी।

Exit mobile version