बिहार में चुनाव इस बार भी अपवाद साबित नहीं हुआ। इस बार भी सभी 243 सीटों पर जातीय समीकरण के आधार पर ही चुनाव लड़ा गया और लोगों का मतदान व्यवहार भी पार्टियों के सामाजिक समीकरण और नेताओं की जाति से तय हुआ। इसके कुछ अपवाद भी हैं लेकिन उन अपवादों के आधार पर बिहार के चुनाव की व्याख्या नहीं हो सकती है। चुनाव की दूसरी खास बात यह रही कि किसी तरह की लहर न तो ऊपर से दिखाई दे रही थी और न कोई अंतर्धारा थी। तीसरी खास बात यह है कि बिहार में एक व्यक्ति, नीतीश कुमार का शासन पिछले 20 साल से चल रहा है और इसके बावजूद विपक्ष उनके खिलाफ सत्ता विरोधी माहौल नहीं बना पाया। उलटे नीतीश के समर्थन में एक मौन माहौल बना हुआ दिखा। तभी यह भी कहा जा रहा है कि मतदान में जबरदस्त बढ़ोतरी सत्ता परिवर्तन के लिए नहीं, बल्कि फिर से नीतीश कुमार को सत्ता में लाने के लिए हुई है। चौथी महत्वपूर्ण बात इस चुनाव की यह दिखी कि कोई सेंट्रल नैरेटिव चुनाव को गाइड नहीं कर रहा था। इस लिहाज से इसे हाइपर लोकल चुनाव कह सकते हैं।
इसलिए बिहार चुनाव की सबसे पहली और मुख्य व्याख्या जाति के आधार पर होगी। वैसे भी बिहार डॉ. राममनोहर लोहिया की ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ के नारे को दिल से लगा कर राजनीति करने वाला राज्य रहा है। बिहार में जाति कैसे सबसे अहम फैक्टर है इसको समझने का कुछ सेंस एक्सिस माय इंडिया के एक्जिट पोल के अनुमानों में देख सकते हैं। हालांकि ये अनुमान पूरी तरह से सही नहीं होते हैं लेकिन कम से जातीय गोलबंदी की तस्वीर इसमें दिख रही है। इसके मुताबिक 90 फीसदी यादव और 67 फीसदी मुस्लिम वोट महागठबंधन यानी राजद, कांग्रेस और लेफ्ट के गठबंधन को मिला है। एक जाति का 90 फीसदी तक एक पार्टी या एक गठबंधन के समर्थन में एकजुट होना यह दिखाता है कि चुनाव में जाति की कितना अहम भूमिका रही है। परंतु क्या मुस्लिम, यादव यानी एमवाई समीकरण के इतने प्रभावी तरीके से काम करना राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन को बढ़त दिलाता है? ऐसा नहीं होता दिख रहा है क्योंकि मामला जिसकी जितनी संख्या भारी का है।
चुनाव से पहले तेजस्वी यादव ने ‘ए टू जेड’ और ‘माई-बाप’ समीकऱण की बात कही थी। उनके लिए एमवाई समीकरण में दूसरी जातियों का वोट जोड़ना इसलिए जरूरी था क्योंकि उसके बगैर राजद के नेतृत्व वाला गठबंधन किसी भी स्थिति में 122 के जादुई अंक तक नहीं पहुंच सकता है और न 40 फीसदी की वोट सीमा पार कर सकता है। परंतु तेजस्वी ने संरचनाबद्ध या व्यवस्थित तरीके से दूसरी जातियों को जोड़ने की बजाय तदर्थ रास्ता अख्तियार किया। उन्होंने उम्मीदवारों में जातीय विविधता का रास्ता चुना।
14 फीसदी आबादी वाले यादव को 53 सीटें देने के बाद तेजस्वी ने कोईरी, भूमिहार जैसी कुछ जातियों के उम्मीदवारों की संख्या बढ़ा दी। यह एक तदर्थ उपाय है, जिसका तदर्थ लाभ ही मिल सकता है। नतीजा यह हुआ कि जिन सीटों पर इन जातियों के उम्मीदवार हैं वहां तो कुछ वोट मिले लेकिन बाकी जगह ये जातियां भी महागठबंधन से दूर रहीं और अपने स्वाभाविक ठिकाने यानी एनडीए के साथ जुड़ी रहीं। पिछले चुनाव में महागठबंधन 37 फीसदी वोट तक पहुंचा था। एनडीए को भी इतने ही वोट मिले थे। महागठबंधन और एनडीए के वोट में सिर्फ 12 हजार वोट का अंतर था। लेकिन ऐसा महागठबंधन की ताकत के कारण नहीं हुआ था, बल्कि चिराग पासवान के 135 सीटों पर अलग लड़ कर 5.66 फीसदी वोट हासिल करने के कारण हुआ था। वह एनडीए का वोट था।
इस चुनाव में तेजस्वी यादव को 37 फीसदी के वोट आधार को बड़ा करना था। लोकसभा चुनाव में रविदास समाज के जुड़ने से महागठबंधन का वोट 39 फीसदी पहुंचा था। लेकिन इस बार तेजस्वी इसमें कुछ नहीं जोड़ पाए। मुकेश सहनी की पार्टी वीआईपी और आईपी गुप्ता की पार्टी आईआईपी उनके साथ जुड़ी। लेकिन कम से कम मुकेश सहनी का वोट महागठबंधन के साथ नहीं जुड़ा और इसके जिम्मेदार तेजस्वी ही हैं। उन्होंने पहले तो सहनी में हवा भरी कि वे 60 सीट मांगें ताकि कांग्रेस को काबू में रखा जा सके। बाद में उनको 15 सीट पर ले आए। उस 15 में से एक सीट पर उनके उम्मीदवार का नामांकन रद्द हो गया। दो सीटों पर उम्मीदवार बैठाना पड़ा और एक सीट पर अब भी फ्रेंडली फाइट है। यानी वे सिर्फ 11 सीट लड़ रहे हैं। उनकी जाति को महागठबंधन से दूर ले जाने का घटनाक्रम गौराबौड़ाम सीट पर उनके भाई संतोष सहनी के मतदान से दो दिन पहले बैठ जाने के कारण हुआ।
यह मैसेज हुआ कि राजद ने अपने मुस्लिम उम्मीदवार के लिए मुकेश सहनी के भाई को बैठा दिया। यह एक प्रतिनिधि घटना है, इसलिए इसका जिक्र जरूरी था। बाकी ऐसी अनेक छोटी छोटी घटनाएं हुईं, जिनका नुकसान महागठबंधन को हुआ। कांग्रेस के साथ गठबंधन अंतिम समय तक टला रहा। कांग्रेस और राजद व कांग्रेस और लेफ्ट का झगड़ा अभी तक है। कांग्रेस की 10 सीटों पर इन पार्टियों के नेता चुनाव लड़ रहे हैं। इस फ्रेंडली फाइट से पूरा गठबंधन अनफ्रेंडली हो गया। तेजस्वी को घोषित करने में देरी के कारण भी दोनों के समर्थकों में दूरी बढ़ी। राहुल गांधी एक सितंबर के बाद लगातार 57 दिन तक बिहार से दूर रहे तो तेजस्वी भी नाम की घोषणा होने तक घर में बैठे रहे। सो, एक तो जाति का समीकरण बड़ा नहीं हुआ। दूसरे, सीट बंटवारे में बहुत मदमजगी हुई और तीसरे, प्रचार बिखरा रहा।
ऐसा नहीं है कि एनडीए में गड़बड़ियां नहीं हुईं। वहां भी बड़ी गड़बड़ी हुई, जिसका खामियाजा हो सकता है कि भाजपा को भुगतना पड़े। लेकिन जहां तक जातीय समीकरण की बात है तो उसके गुलदस्ते में ज्यादा जातियां हैं। नीतीश कुमार का बनाया गैर यादव पिछड़ा, अति पिछड़ा, दलित और सवर्ण का समीकरण लगभग पूरी तरह से एकजुट रहा। विधानसभा चुनाव में एनडीए को जरूर 37 फीसदी वोट आया था लेकिन लोकसभा में चिराग पासवान और उपेंद्र कुशवाहा के लौटने के बाद उसका वोट प्रतिशत बढ़ कर 44 हो गया था। यह इस चुनाव में एकजुट दिख रहा है। चुनाव बाद के तमाम सर्वेक्षण एनडीए का वोट प्रतिशत 43 से 49 तक बता रहे हैं। जाति के ऊपर एकमात्र ओवरराइडिंग फैक्टर महिला मतदाताओं का है, जिन्होंने पुरुषों के मुकाबले लगभग नौ फीसदी ज्यादा मतदान किया है और उनका स्पष्ट रूझान नीतीश कुमार की ओर दिखा। सो, जाति समीकरण में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले एनडीए का पलड़ा भारी दिख रहा है।
इसके ऊपर उनकी सरकार ने जो योजनाएं शुरू कीं उनका असर भी चुनाव पर दिखा है। चुनाव से पहले विधवा, दिव्यांगजन और बुजुर्गों की पेंशन चार सौ से बढ़ा कर 11 सौ रुपए की गई। जुलाई से 125 यूनिट बिजली फ्री कर दी गई। पीटी टीचर्स, स्कूलों के नाइट गार्ड्स सहित कई नौकरियों में मानदेय दोगुना किया गया। अलग अलग समूहों को टैब या स्मार्ट फोन खरीदने के लिए नकद पैसे दिए गए। और चुनाव से ठीक पहले मुख्यमंत्री महिला उद्यमी योजना के तहत महिलाओं के खाते में 10-10 हजार रुपए भेजे गए। इनका मकसद किसी नए मतदाता समूह को एनडीए से जोड़ना नहीं था, बल्कि जो पहले से जुड़े रहे हैं उनकी नाराजगी दूर करके उनको अपने साथ बनाए रखना था। इसमें काफी हद तक कामयाबी मिली।
अगर एनडीए की कमजोरियों की बात करें तो सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि चुनाव से पहले नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद का दावेदार नहीं घोषित किया गया। हालांकि बाद में प्रधानमंत्री को छोड़ कर भाजपा के हर नेता ने कहा कि नीतीश ही सीएम होंगे लेकिन चुनाव में भाजपा को इसका नुकसान हुआ है। दूसरी बड़ी गलती नीतीश को बड़ा भाई नहीं बनाने की थी। कम से कम एक सीट ज्यादा देकर उनको आगे रखना चाहिए था। तीसरी गलती भाजपा ने अपने ज्यादातर विधायकों या हारे हुए उम्मदीवारों को रिपीट करके की। इससे स्थानीय स्तर पर उनको विरोध झेलना पड़ा। नीतीश कुमार के साथ 2020 में भाजपा और चिराग पासवान द्वारा किए गए खेल का भी बदला कुछ जगह नीतीश समर्थकों ने दोनों से लिया है।
अंत में जाति, महिला और लाभार्थी के तीन समूहों और इनसे जुड़े मुद्दों के अलावा एक चौथा फैक्टर युवा का रहा और पांचवां फैक्टर प्रवासी का रहा। तेजस्वी यादव युवा के सहारे तो प्रशांत किशोर युवा और प्रवासी दोनों के सहारे अपने प्रदर्शन का आकलन करते रहे। शिक्षा, बेरोजगारी और पलायन के मुद्दे पऱ इन दोनों समूहों के रुख से पासा पलटने की उम्मीद दोनों को थी। लेकिन ऐसा लग रहा है कि ये दोनों फैक्टर जाति, महिला और लाभार्थी के नैरेटिव को प्रभावी तरीके से ओवरराइड नहीं कर सके।
