वोटर टर्नआउट की व्याख्या करने की एक शास्त्रीय विधि है, जिसके मुताबिक कम मतदान का मतलब है यथास्थिति बरकरार रहना और ज्यादा मतदान का मतलब है सत्ता परिवर्तन। लेकिन यह एक रूढ़ परिभाषा है, जो कई बार गलत साबित हो चुकी है। सीएसडीएस के संजय कुमार ने अपने लेख में बताया है कि 2020 तक अलग अलग राज्यों में हुए 332 विधानसभा चुनावों में से 188 चुनावों में मतदान का प्रतिशत बढ़ा तो उसमें से 89 सरकारें दोबारा चुनी गईं। इसी तरह 144 बार मतदान प्रतिशत कम हुआ उसमें 56 बार सरकार रिपीट हुई।
इसका मतलब है कि मतदान प्रतिशत कोई निश्चित पैटर्न नहीं बताता है। अब सवाल है कि क्या बिहार को इसी नजरिए से देखना चाहिए कि मतदान प्रतिशत बहुत बढ़ा है तो इसका कोई असर बिहार के नतीजों पर नहीं होगा? ध्यान रहे इससे पहले बिहार में 2010 के चुनाव में मतदान प्रतिशत में करीब साढ़े छह फीसदी की बढ़ोतरी हुई थी और नीतीश कुमार की सरकार ऐतिहासिक बहुमत के साथ सत्ता में लौटी थी। तब एनडीए को 243 में से 206 सीटें मिली थीं। तो क्या इस बार मतदान प्रतिशत बढ़ना किसी ऐसे जनादेश का इशारा है? बता दें कि इस बार बिहार में करीब 67 फीसदी मतदान हुआ है, जो पिछली बार के 57 फीसदी के मुकाबले 10 फीसदी ज्यादा है।
इस रिकॉर्ड मतदान के आधार पर किसी भी नतीजे पर पहुंचने से पहले समझना होगा कि मतदान प्रतिशत बढ़ने के क्या क्या कारण हो सकते हैं। सबसे पहला कारण मतदाता सूची की सफाई है। मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर के जरिए करीब 70 लाख नाम काटे गए हैं। उसका असर मतदान प्रतिशत में दिख रहा है। इस बात को ऐसे समझा जा सकता है कि अगर ये 70 लाख नाम नहीं कटते तो बिहार में कुल आठ करोड़ 12 लाख मतदाता होते। दोनों चरणों में करीब पांच करोड़ लोगों ने वोट डाला है। अगर आठ करोड़ 12 लाख पर परसेंटेज निकालें तो यह 62 फीसदी के आसपास होगा, जबकि इस बार मतदान का प्रतिशत 67 है। यानी पिछली बार से जो 10 फीसदी मतदान बढ़ा है उसमें करीब आधा एसआईआर का रिफ्लेक्शन है। इसके बावजूद पांच फीसदी मतदान बढ़ना मामूली बात नहीं है। एब्सोल्यूट नंबर में करीब 70 लाख ज्यादा वोट हुआ है। आमतौर पर पांच साल में मतदताओं की जो संख्या बढ़ती है उससे भी कुछ बढ़ोतरी हुई है। इसके अलावा मतदान प्रतिशत बढ़ने के कुछ और कारण हैं।
किसी भी चुनाव में जब नई राजनीतिक ताकत मैदान में होती है और वोट मोबिलाइज करती है तो मतदान का प्रतिशत बढ़ता है। इस बार प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी एक बड़ी राजनीतिक ताकत के तौर पर चुनाव मैदान में थी। उन्होंने अपने संसाधनों और प्रबंधन के दम पर लोगों के इमैजिनेशन में जगह बनाई, जिसका असर जमीनी स्तर पर भी दिखा। उन्होंने बिहार में विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, पढ़ाई, पलायन आदि का मुद्दा बनाया, जिसकी गूंज शहरी इलाकों में खूब सुनने को मिली। उनकी पार्टी 243 सीटों पर चुनाव लड़ी। उनके अपने और उम्मीदवारों के प्रयासों से भी मतदान का प्रतिशत बढ़ा। इसी तरह छठ के तुरंत बाद पहले चरण की वोटिंग हुई, जिसमें घर लौटे प्रवासियों के एक बड़े समूह ने वोट किया।
दूसरे चरण के लिए भी बड़ी संख्या में प्रवासियों के बिहार आने की खबर मिली। यानी प्रवासी बिहारी मतदाताओं ने वोटिंग परसेंटेज बढ़वाया। इसके पीछे निश्चित रूप से प्रशांत किशोर का बनाया नैरेटिव काम आया। इसके अलावा इस अफवाह का भी असर दिखा कि एसआईआर के बाद सरकार ने नियम बनाया है कि अगर वोट नहीं डाला तो नाम कट जाएगा। इस चिंता में मुस्लिम बहुल इलाकों में बहुत मतदान हुआ। बिहार के युवा मतदाताओं को प्रशांत किशोर के पलायन रोकने के नैरेटिव ने प्रभावित किया तो तेजस्वी यादव के हर घर एक सरकारी नौकरी देने के वादे ने भी उनको वोट करने के लिए प्रोत्साहहित किया। सो, उनका भी योगदान वोट प्रतिशत बढ़ाने में है।
मतदान प्रतिशत बढ़ने में एक बड़ा फैक्टर महिला मतदाताओं की सक्रिय भागीदारी रही। इस बार कुल मतदान में महिला मतदाताओं की हिस्सेदारी बहुत ज्यादा है। पुरुषों के मुकाबले महिला वोट 10 फीसदी ज्यादा पड़ा है। अगर एब्सोल्यूट नंबर्स में देखें तो दो करोड़ 51 लाख 60 हजार महिलाओं ने वोट डाला है, जो कुल मतदान का 50.4 फीसदी है, जबकि दो करोड़ 47 लाख से कुछ ज्यादा पुरुषों ने वोट डाला है, जो कुल वोट का 49.6 फीसदी है। सोचें, बिहार में महिला मतादाताओं की संख्या पुरुषों से 42 लाख कम है फिर भी चार लाख 32 हजार ज्यादा महिलाओं ने वोट किया है। इससे मतदान प्रतिशत को बढ़ा ही है साथ ही नतीजों का एक स्पष्ट संकेत भी मिला है। पिछले 20 साल में लगभग हर चुनाव में महिलाओं का ज्यादा वोट एनडीए के पक्ष में गया है।
इसके पीछे नीतीश कुमार की राजनीति है। उन्होंने देश में सबसे पहले स्वतंत्र महिला कांस्टीट्यूएंसी बनानी शुरू की थी। इसके लिए उनहोंने 2005 में सत्ता में आते ही महिलाओं को स्थानीय निकायों में 50 फीसदी आरक्षण दिया। उसके बाद पुलिस भर्ती में आरक्षण का प्रावधान किया। स्कूल जाने वाली लड़कियों के लिए साइकिल और पोशाक की योजना शुरू की। शराबबंदी भी महिला सशक्तिकरण की योजना का हिस्सा है। उन्होंने डोमिसाइल नीति बनाई, जिसके तहत महिलाओं के लिए सरकारी नौकरियों में 35 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की। इस बार चुनाव से पहले मुख्यमंत्री महिला उद्यमी योजना की घोषणा हुई, जिसके तहत महिलाओं के खाते में 10-10 हजार रुपए भेजे गए। यह ‘दस हजारी स्कीम’ इस चुनाव को परिभाषित करने वाला मुद्दा बना।
इसके अलावा एक अहम मुद्दा युवा मतदाताओं का है। बिहार के मतदाताओं में ‘जेन जी’ यानी 18 से 29 साल की उम्र के करीब एक करोड़ 77 लाख मतदाता हैं। एक तरफ प्रशांत किशोर इनको पलायन रोक देने और बिहार में ही अच्छी शिक्षा व रोजगार के दावे से आकर्षित कर रहे थे तो दूसरी ओर तेजस्वी यादव हर घर एक सरकारी नौकरी के वादे से लुभाने की कोशिश कर रहे थे। उधर एनडीए के पास हिंदुत्व व राष्ट्रवाद के नारे से प्रभावित युवाओं का एक समूह है। मतदान प्रतिशत बढ़ाने में इस समूह का भी बड़ा हाथ रहा।
प्रशांत किशोर के पलायन रोकने के वादे ने प्रवासी युवाओं को ज्यादा आकर्षित किया है। जाहिर है सिर्फ मतदान प्रतिशत बढ़ने के आधार पर चुनाव नतीजों का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है। हां, यह जरूर है कि मतदान बढ़ने के कारणों की पड़ताल में कहीं भी बदलाव का स्वर नहीं सुनाई देता है। बिहार चुनाव में बदलाव की बातें बहुत हुईं लेकिन लोगों ने बदलाव के लिए इतना मतदान किया, इसका संकेत कहीं देखने को नहीं मिला। तो क्या यह माना जाए कि नीतीश कुमार की सरकार को फिर से सत्ता में लाने के लिए इतना बड़ा मतदान हुआ है? अगर ऐसा है तो उसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं और दोनों बड़े गठबंधनों की क्या ताकत और कमजोरी रही इस पर कल चर्चा करेंगे। (जारी)
