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अब अफसोस करने से क्या होगा?

राहुल गांधी अफसोस जता रहे हैं। दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में कांग्रेस के ओबीसी प्रकोष्ठ को ओर से आयोजित ‘भागीदारी न्याय सम्मेलन’ में राहुल गांधी ने कहा, ‘मैं 2004 से राजनीति में हूं। जब मैं पीछे मुड़ कर देखता हूं, तो मुझे लगता है कि मैंने गलती की। मैंने ओबीसी की उस तरह रक्षा नहीं की जैसी मुझे करनी चाहिए थी। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि मैं उस समय आपके मुद्दों को गहराई से नहीं समझ पाया’। कांग्रेस के सर्वोच्च नेता और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने मंच पर और कार्यक्रम में मौजूद ओबीसी नेताओं से कहा, ‘मुझे अफसोस है कि अगर मुझे आपके इतिहास, आपके मुद्दों के बारे में थोड़ा भी पता होता, तो मैं उसी समय जाति जनगणना करा लेता। यह मुझसे हुई गलती है। यह कांग्रेस पार्टी की गलती नहीं है, यह मेरी गलती है। मैं उस गलती को सुधारने जा रहा हूं’।

राहुल गांधी पहले भी इस तरह की बात कह चुके हैं। सिर्फ ओबीसी के मामले में नहीं, बल्कि कई दूसरे मामलों में भी वे गलतियों की माफी मांग रहे हैं और अफसोस जाहिर कर रहे हैं। हालांकि वास्तविकता यह है कि ये जाति गणना नहीं कराना कांग्रेस का नीतिगत फैसला रहा है और ओबीसी की अनदेखी करना कांग्रेस की चुनावी रणनीति रही है।

तभी सवाल है कि अब अफसोस जाहिर करने से क्या होगा? क्या देश का ओबीसी समाज राहुल गांधी के बयान को एक ईमानदार बयान मानेगा और स्वीकार कर लेगा कि सचमुच उनको समझ नहीं थी इसलिए कांग्रेस के लंबे शासन में ओबीसी की अनदेखी हो गई? अगर 2004 में राहुल गांधी को समझ नहीं थी तो क्या यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी और तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी समझ नहीं थी? राहुल गांधी के साथ मंच पर राजस्थान के तीन बार मुख्यमंत्री रहे अशोक गहलोत, उनके उप मुख्यमंत्री रहे सचिन पायलट और छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल भी मौजूद थे, क्या यह माना जाए कि इन तीनों को खास कर गहलोत और बघेल को भी राहुल की ही तरह ओबीसी का इतिहास नहीं पता था और अनजाने में अनदेखी होती रही? अगर सवालों की इस शृंखला को बढ़ाएं तो सवाल वहां तक जाएंगे कि क्या पंडित जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी को भी पिछड़ी जातियों के इतिहास, उनके सामाजिक व शैक्षिक पिछड़ेपन या सामाजिक समस्याओं की जानकारी नहीं थी इसलिए उनके राज में भी ओबीसी की अनदेखी होती रही?

असल में राहुल गांधी ने बंद हो चुके एक असहज अध्याय को फिर से खोल दिया है। वे ऐसे काम करते रहते हैं। कुछ दिन पहले उन्होंने गुजरात में कहा था कि ऐसे अनेक नेता हैं, जो कांग्रेस में हैं लेकिन भाजपा के लिए काम करते हैं। राहुल ने कहा था कि ऐसे लोगों की पहचान करके उनको पार्टी से निकाला जाएगा। लेकिन अभी तक किसी को निकाला नहीं गया है। उलटे उन्होंने भाजपा विरोधी मतदाताओं के मन में कांग्रेस के प्रति एक अविश्वास जरूर पैदा कर दिया है। इसका लाभ लेने के लिए आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल गुजरात में दिन रात एक किए हुए हैं। ओबीसी की अनदेखी करने या उनके मुद्दों को समझ पाने में अपनी अक्षमता जाहिर करके राहुल ने एक बार फिर वैसी ही गलती की है।

उन्होंने अपने साथ साथ अपने पूर्वजों को और कांग्रेस के तमाम पुराने नेताओं को भी कठघरे में खड़ा कर दिया है। अगर कांग्रेस ने ओबीसी की अनदेखी की तो यह उसकी राजनीतिक रणनीति रही थी, जिसे ओबीसी समाज जानता है। देश के बच्चे बच्चे को पता है कि एक रणनीति के तौर पर कांग्रेस ने सवर्ण, दलित और मुस्लिम वोट का आधार बनाया था, जिसके दम पर वह इतने दशकों तक सत्ता में रही। इस वोट आधार को बनाए रखने के लिए जरूरी था कि ओबीसी की अनदेखी की जाए। इसके भी ऐतिहासिक कारण थे। आजादी से ठीक पहले कांग्रेस के अंदर के तमाम समाजवादी नेता अलग हो गए थे और उन्होंने पिछड़ों की राजनीति की। आजाद भारत में भी हमेशा समाजवादी पार्टियां ही ओबीसी की राजनीति करती रहीं और उनका कांग्रेस से कैसा वैर था यह किसी से छिपा नहीं है। आजादी के बाद अनेक दशकों तक भारतीय जनसंघ मुख्य प्रतिद्वंद्वी नहीं थी, बल्कि अलग अलग समाजवादी व प्रादेशिक पार्टियां कांग्रेस की प्रतिद्वंद्वी थीं।

कांग्रेस द्वारा ओबीसी की अनदेखी का मामला कोई 2004 का नहीं है या राहुल गांधी की नासमझी का नहीं है। कांग्रेस की नीति का है। क्योंकि अगर राहुल 2004 में नहीं समझे थे तो 2009 में समझ सकते थे या 2014 और 2019 में समझ सकते थे। लेकिन उनको यह मामला 2023 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव से ठीक पहले समझ में आया और वह भी नीतीश कुमार जैसे समाजवादी नेता के समझाने से। तभी इसमें संदेह है कि ओबीसी समुदाय उनकी बात पर यकीन करेगा। ऐतिहासिक रूप से जो समाज कांग्रेस विरोधी राजनीति की धुरी रहा है और समाजवादी या कम्युनिस्ट और बाद के दिनों में भाजपा का वोट आधार बना है वह राहुल गांधी के अफसोस जताने से उनके साथ चला जाएगा इसमें संदेह है।

हालांकि इसके लिए राहुल गांधी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। ओबीसी को आरक्षण देने के लिए काका कालेलकर समिति उनके परनाना के समय बनी थी और उनकी दादी इंदिरा गांधी तक सबने उस रिपोर्ट को रोका था। ऐसे ही मंडल आयोग की रिपोर्ट को इंदिरा गांधी और राजीव गांधी दोनों ने रोका था। जनता पार्टी की मोरारजी देसाई सरकार ने वीपी मंडल की अध्यक्षता में कमेटी बनाई थी, जिसकी रिपोर्ट लागू करने से पहले सरकार चली गई। उसके बाद सत्ता में आईं इंदिरा गांधी और फिर राजीव गांधी ने 10 साल तक रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाले रखा। वीपी सिंह ने 1990 में इसे लागू किया। आज राहुल गांधी आरक्षण की सीमा बढ़ा कर आबादी के अनुपात में करने की बात कर रहे हैं लेकिन इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने तो ओबीसी को उनकी अनुमानित आबादी के आधा यानी 27 फीसदी आरक्षण देने के प्रस्ताव को भी मंजूरी नहीं दी थी और ओबीसी समाज इस बात को जानता है।

ऐतिहासिक रूप से कांग्रेस ओबीसी राजनीति से दूर रही है, खास कर उत्तर भारत में। इसका नतीजा यह हुआ कि उत्तर भारत की पिछड़ी जातियों ने अपने नेता चुन लिए। पिछले 35 साल से बिहार में अगर ओबीसी जातियों ने लालू प्रसाद और नीतीश कुमार को नेता चुना है या भाजपा के सुशील मोदी उनके नेता रहे, अब भी सम्राट चौधरी नेता हैं तो अब कोई कारण नहीं है कि ओबीसी समाज कांग्रेस में भरोसा दिखाए या कांग्रेस की ओर जाए। यही स्थिति कमोबेश हर राज्य की है। यह भी ध्यान रखने की जरुरत है कि ओबीसी जातियों ने अपनी जाति के नेता चुने हैं। इस  फर्क को समझने की जरुरत है कि देश के मुसलमानों ने हिंदू नेताओं को अपना रहनुमा चुना लेकिन पिछड़ों ने किसी सवर्ण को अपना रहनुमा नहीं चुना। यहां तक कि मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने वाले वीपी सिंह अगले ही चुनाव में हाशिए पर चले गए। इसलिए इस बात की संभावना भी कम है कि पिछड़ी जातियां राहुल गांधी को नेता स्वीकार करेंगी। राहुल अपनी पहचान छिपा नहीं सकते हैं। वे इंदिरा गांधी के पोते और राजीव गांधी के बेटे हैं। उनकी पार्टी ने उनको दत्तात्रेय गोत्र का कौल ब्राह्मण बताया हुआ है। इसलिए वे चाहे जितनी बातें करें और जितने अफसोस जताएं, ओबीसी का नेता बन पाना उनके लिए मुश्किल होगा। हां, यह हो सकता है कि जिन राज्यों में प्रादेशिक पार्टियों के या भाजपा के मजबूत ओबीसी नेता नहीं हैं, वहां कांग्रेस ओबीसी नेता को आगे करके, उसे मजबूती देकर कुछ लाभ ले सकती है।

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