इतिहास को सिर्फ घिनौने अतीत से देखना, और फिर भविष्य के स्मार्ट सपने दिखाना एक साथ संभव नहीं हो सकता। ।।।क्या आज भाजपा में कोई चन्द्रशेखर या मोहन धारिया या फिर आई के गुजराल हैं जो अपनी ही सत्ता से समाजहित के लिए सवाल कर सके? अगर समाज में ही सत्ता से सवाल का गहरा संकट है तो सत्तादलों में आपसी सवाल-जवाब की स्वतंत्रता कहां से आएगी।
आज जब दुनिया की सर्वसत्ताएं शांति की स्थापना के लिए ही युद्ध करने पर उतारूं हो रहीं हों तो इतिहास के दृष्टिकोण से भारत के लोकतंत्र का भविष्य कैसे देखें? इतिहास को वर्तमान में देखने-समझने की दृष्टि अपने-अपने उद्देश्यों से भी तय होती है। जिस तरह से इतिहास को सत्तापक्ष देखता है, क्या उसी तरह से सत्ता प्रतिपक्ष भी देख सकता है।
इसलिए पिछले दिनों जो इमरजेंसी का इतिहास कर्मठता, या कुंठा में दर्शाया गया उसको करूणा में देखने का जिम्मा समाज पर छोड़ दिया गया है। समाज सोचने पर मजबूर है कि जो इमरजेंसी इंदिरा गांधी ने पचास साल पहले लगाई थी क्या वह नरेन्द्र मोदी नहीं लगा सकते। और फिर इसकी गारंटी कौन ले सकता है?
लोक के तंत्र को सत्ता के यंत्र से कुचलने की इक्कीस महीने की इमरजेंसी या आपातकाल की याद वर्तमान पीढ़ी के लिए जगाई-दर्शाई गयी। समाज के नेताओं ने और जनता ने जो अनीति जून 1975 से मार्च 1977 तक भोगी उसको अखबारों, जनसभाओं व आयोजनों से नई पीढ़ी को बताया-समझाया गया। समाज पर सत्ता द्वारा थोपे गए आपातकाल को जहां याद करना आज जरूरी था वहीं उसके दोहराए न जाने के संकल्प की शपथ भी उतना ही प्रेरक है। संकल्प के ऐसे जनजागरण के लिए समाज को सजग करने की कोशिश भी होनी ही चाहिए। सरकार ने पचास साल पहले इमरजेंसी की शुरुआत के दिन को संविधान ‘हत्या’ दिवस के रूप में मनाने की गुहार लगाई है। हुए-माने गए इतिहास को शब्दों से ही गढ़ा जाता है। इसलिए शब्दों के चयन से भी सत्ता की मंशा साफ होती है।
जिन पर इमरजेंसी का कहर बरपा था बेशक उनका उस पर बात करना, उस समय को याद करना लोकतंत्र के टिके रहने के लिए जरूरी है। राष्ट्रहित में भी है। लेकिन भूलना यह भी नहीं चाहिए कि इमरजेंसी के भुगतभोगी ही आज सत्ता में हैं। और इमरजेंसी का मूल कारण तो समाज-सेवा के बजाए सर्वसत्ता की लालसा ही रही है। संविधान को लोक के तंत्र के लिए ही गढ़ा गया था। समाज उसे सहेजता है। और संवारता भी है। इसलिए समाज की आशा भी रही है कि जनता द्वारा चुनी सरकार लोकतंत्र की मर्यादा में संविधान के शब्दों के चयन की मर्यादा भी रखे।
प्रतिपक्ष भी इन्हीं और ऐसे ही शब्दों का उपयोग करता रहा है। अगर जून सन् 1975 में संविधान की ‘हत्या’ हुई होती तो आज लोकतंत्र का अमृत महोत्सव नहीं मन रहा होता। लोकतंत्र में संविधान के प्रति उत्तरदायित्व तो सत्ता पर ही रहता है। जब सत्ता समाज में ऐसे शब्दों का उपयोग करती है तो सामाजिकता का उद्देश्य भी बदलता है।
लेकिन आज समाज अपने लोकतंत्र में बनाए गए संविधान का उत्सव मना रहा है। जन्म व मृत्यु से तो किसी ने भी पार नहीं पाया, लेकिन इनके बीच में ही सदाचार, समभाव व सद्भाव के जीवन का संघर्ष चलता है। तो दूसरा सवाल उठता है कि क्या आज की भाजपा सरकार में सन् 1975 की कांग्रेस सरकार की तरह लोकतंत्र है? आज बेशक दलों के लोकतंत्र मूल्यों को तिलांजलि दे दी गयी हो लेकिन तब की कांग्रेस में रहते हुए भी समाज के कुछ नेताओं ने इमरजेंसी के निर्णय पर सवाल किए थे। क्या आज भाजपा में कोई चन्द्रशेखर या मोहन धारिया या फिर आई के गुजराल हैं जो अपनी ही सत्ता से समाजहित के लिए सवाल कर सके? अगर समाज में ही सत्ता से सवाल का गहरा संकट है तो सत्तादलों में आपसी सवाल-जवाब की स्वतंत्रता कहां से आएगी।
फिर समाज के लिए सत्ता से सवाल करने वाले चिरसंघर्षी जयप्रकाश नारायण की कोई जगह आज अपनी राजनीति में हैं क्या? व्यवहारिकता समझने वाले, समाज के चिंतक पत्रकार रामबहादुर राय ने चंद्रशेखर के लिखे एक संपादकीय को नयी पीढ़ी के लिए सामने रखा। यह की चन्द्रशेखर ने ही इंदिरा गांधी को जताया था कि ‘‘जयप्रकाश नारायण राजनीतिक ताकत के लिए नहीं लड़ रहे हैं, इसलिए उन्हें राज्य की शक्ति का प्रयोग करके नहीं हराया जा सकता।’’ क्या आज की सत्ता शब्दों की मर्यादा और संविधान की रक्षा में समाज को ही हराने में नहीं लगी है?
भारत युवाओं की बहुसंख्या का देश है। उसमें इतिहास को सिर्फ घिनौने अतीत से देखना, और फिर भविष्य के स्मार्ट सपने दिखाना एक साथ संभव नहीं हो सकता। अतीत का घिनौनापन बढ़ेगा तो वर्तमान, और भविष्य का भी सद्भाव घटेगा। हर इमरजेंसी में समाज सजग ही रहता है।