भारतीय संस्कृति के अनुसार मानव और देव दोनों परस्पर संबद्ध हैं। मनुष्य यज्ञों में देवों के लिए आहुति देता है, जो प्रसन्न होकर उसकी अभिलाषा पूर्ण करते हैं और अपने प्रसादों की वृष्टि उनके ऊपर निरंतर करते रहते हैं। इस प्रकार वैदिक आख्यानों से संबंधित अनेक आख्यानों का विकास उपनिषद, ब्राह्मण व आरण्यक ग्रंथों, रामायण, महाभारत और पुराणों में हुआ है।
भारत में आख्यान परंपरा सुदीर्घ, लंबी, वृहत व अत्यंत प्राचीन है। विश्व के सर्वप्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में सुपर्ण, शुन:शेप, अगस्त्य और लोपामुद्रा, गृत्समद, वसिष्ठ व विश्वामित्र और पुरुरवा इत्यादि के आख्यान अंकित होने से यह सिद्ध है कि आख्यान परंपरा भारत में आदि सृष्टिकाल से चली आ रही है। अति प्राचीन काल से भारतीय पुरातन ग्रंथों में आख्यान शब्द कथा अथवा कहानी या वृतांत के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। आख्यान को अनुश्रुति भी कहा जाता है। तारानाथकृत वाचस्पत्यम् कोश के प्रथम भाग में इसकी व्युत्पत्ति -आख्यायते अनेनेति आख्यानम् -दी गई है।
साहित्य दर्पण में आख्यान को पुरावृत कथन अर्थात आख्यानं पूर्ववृतोक्ति कहा गया है। विद्वानों के अनुसार ऋग्वेद के कथात्मक सूक्त वस्तुतः पौराणिक और निजंधरी आख्यान ही है। यास्क ने निरुक्त 11/15 में सरमा पणीस की कथा को आख्यान कहा है। संसार के सर्वप्रथम स्मृति ग्रंथ मनुस्मृति के तृतीय अध्याय में पितृ श्राद्ध के अवसर पर किए जाने वाले कर्मों के विवरण में प्रसिद्ध विद्वान कुल्लक भट्ट ने मन्वर्थमुक्तावली नामक आख्यान लिखा है।
आख्यानों की सनातन शाश्वत अखंड सत्ता का प्रमाण संसार के सर्वप्रथम और परमेश्वरोक्त ग्रंथ ऋग्वेद की संहिताओं में ही उपलब्ध है। अकेले ऋग्वेद में ही प्रख्यात 30 सूक्त- शुन:शेप 1/24, अगस्त्य और लोपामुद्रा 1/179, गृत्समद 2/12, वसिष्ठ और विश्वामित्र 3/53, 7/33 आदि, सोम का अवतरण 3/43, त्र्यरूण और वृशजान 5/2, अग्नि का जन्म 5/11, श्यावाश्व 5/32, बृहस्पति का जन्म 6/71, राजा सुदास 7/18, नहुष 7/95, अपाला 8/91, नाभानेदिष्ठ 10/61-62, वृषाकपि 10/86, उर्वशी और पुरूरवा 10/95, सरमा और पणि 10/108, देवापि और शन्तनु 10/98,नचिकेता 10/135 आदि सूक्त आख्यानपरक हैं। इनमें से कुछ आख्यान तो वैयक्तिक देवता के विषय में हैं, और कुछ किसी सामूहिक घटना को लक्ष्य कर प्रवृत्त- प्रवृद्ध होते हैं।
ऋग्वेद में इंद्र तथा अश्विन के विषय में भी अनेक आख्यान प्राप्य हैं, जिनमें इन देवों की वीरता, पराक्रम तथा उपकार की भावना स्पष्ट होती है। अथर्ववेद 10/7/26 में इतिहास तथा पुराण का उल्लेख मौखिक साहित्य के रूप में न होकर लिखित ग्रंथ के रूप में किया गया है। वेदों की व्याख्यान प्रणाली के विभिन्न संप्रदायों में यास्क ने ऐतिहासिकों के संप्रदाय का अनेक बार उल्लेख किया है, जिनके अनुसार वृत्र, त्वाष्ट्र असुर की संज्ञा है और देवों के अधिपति इंद्र के साथ उसके घोर संघर्ष और तुमुल संग्राम का वर्णन ऋग्वेद के मंत्रों में किया गया है। इस संप्रदाय के व्याख्याकारों की सम्मति में वेदों में महत्वपूर्ण आख्यान विद्यमान हैं। इनके अतिरिक्त दानस्तुतियों में अनेक राजाओं के नाम उपलब्ध हैं, जिनसे दान पाकर अनेक ऋषियों को उनकी स्तुति में मंत्र लिखने की प्रेरणा मिली। इन स्तुतियों में भी कतिपय आख्यानों की ओर स्पष्ट संकेत विद्यमान हैं।
ऋग्वेद से भिन्न वैदिक ग्रंथों में भी आख्यानमूलक रचनाएं प्राप्य हैं। इनमें से कुछ ऋग्वेद में संकेतित आख्यानों के ही परिवर्द्धित और परिबृंहित रूप हैं। ऋग्वेद से संबद्ध अनुक्रमणी साहित्य में विशेषकर बृहद्देवता और सर्वानुक्रमणी में निरुक्त, नीतिमंजरी और सायण भाष्य में इन आख्यानों को लेकर विस्तृत घटनाओं का भी वर्णन हुआ है। पुराणों में भी ये आख्यान अंकित हैं, परंतु इनकी घटनाओं में कहीं ह्रास, कहीं परिवर्द्धन और कहीं परिबृंहण स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। ब्राह्मण तथा श्रौतसूत्र ग्रंथों में भी इनके संबंध में वर्णन अंकित हैं। ऋग्वेद के अनेक सूक्तों 9/19, 20, 21, 22, 8/81 में संकेतित सोभरि काण्व आख्यान का विस्तार से वर्णन भागवत पुराण स्कंध 9, अध्याय 6/38-55, निरुक्त 4/15 में भी किया गया है, जो संगति के महत्त्व का प्रतिपादन करता है।
ऋग्वेद 5/61 में अंकित श्यावाश्व आत्रेय का आख्यान का उल्लेख सांख्यायन श्रोतसूत्र 16/11/9 में भी हुआ है। यह कथा ऋषि के गौरव, प्रेम की महिमा तथा मंत्र द्रष्टा ऋषि की साधना को बड़ी सुंदर रीति से अभिव्यक्त करती है। ऋग्वेदीय युग की इस प्रख्यात प्रणय कथा में प्रेम की सिद्धि के लिए श्यावाश्व तपस्या के बल पर मंत्रद्रष्टा ऋषि बन जाते हैं। ऋग्वेद के अनेक सूक्तों 1/116, 117, 118 और 10/39 में उल्लिखित च्यवान, पुराणों के च्यवन भार्गव तथा सुकन्या मानवी का आख्यान तांड्य ब्राह्मण 14/6/11, निरुक्त 4/19, शतपथ ब्राह्मण कांड 4 तथा श्रीमद्भागवत पुराण 9/3 में विस्तार के साथ वर्णित है। यह आख्यान भारतीय नारी चरित्र का एक नितांत उज्ज्वल दृष्टांत प्रस्तुत करता है। इसी प्रकार ऋग्वेद 8/91 में अंकित अपाला आत्रेयी का आख्यान भी नारीचरित्र की उदात्तता तथा तेजस्विता का विशद प्रतिपादक है।
ऋग्वेद 5/ 2 राजा त्र्यरुण त्रैवृष्ण और वृशजान का आख्यान तांड्य ब्राह्मण 13/3/12, ऋग्विधान 12/52, बृहद्देवता 5/14/23 में आया है, जो वैदिक कालीन पुरोहित की महत्ता और गरिमा का स्पष्ट संकेत करता है। ऋग्वेद 1/116/123 में उल्लिखित दध्यंग आथर्वण का आख्यान शतपथ ब्राह्मण 14/4/5/13, बृहदारण्यक उपनिषद 2/5, भागवत पुराण 6/10 में भी वर्णित है, जो राष्ट्र के मंगल के लिए अपने जीवनदान की शिक्षा देकर हमें क्षुद्र स्वार्थ से ऊपर उठने और राष्ट्र का कल्याण करने का गौरवमय उपदेश देता है। पुराणों में ऋषि दधीचि के रूप में इनका वर्णन है, जिन्होंने वृत्र को मारने के लिए इंद्र को अपनी हड्डियां वज्र बनाने के लिए देकर आर्य सभ्यता की रक्षा की थी। अनधिकारी को रहस्यविद्या के उपदेश का विषम परिणाम इस आख्यान में देखने को मिलता है। कतिपय ऋषियों की चारित्रिक त्रुटियों तथा अनैतिक आचरणों का भी वर्णन वैदिक तथा उनका अनुसरण करनेवाले महाभारत और पुराणों में पाए जाने वाले आख्यानों में उपलब्ध होता है। ऐसी कथानक अनैतिकता के गर्त में गिरने से बचाने के लिए ही निर्दिष्ट हैं।
इन सब आख्यानों के पीछे उपदेश है- ईश्वर में अटूट श्रद्धा तथा मानव से घनिष्ठ प्रेम। लेकिन कालांतर में परिवर्तित मनोवृत्ति अथवा विभिन्न सामाजिक तथा धार्मिक परिस्थिति के कारण पुराणों में अति वैषम्य रूप में प्रस्तुत ये आख्यान अपने विशुद्ध वैदिक रूप से नितांत विकृत रूप धारण कर लेते हैं। विकास की प्रक्रिया में अनेक अवांतर घटनाएं भी उस आख्यान के साथ संश्लिष्ट होकर उसे एक नया रूप प्रदान करती हैं, जो कभी-कभी मूल आख्यान के नितांत विरुद्ध सिद्ध होता है।
ऋग्वेदीय आख्यान मानव समाज के कल्याणसाधन के नितांत समीप के विचारों, व्यापारों को क्रमशः अग्रसारित, वर्णन करते हैं। मानव मूल्य के दृष्टिकोण से इनका अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि ऋग्वेदीय मंत्रों के द्रष्टा ऋषि मानव की कल्याणसिद्धि के लिए उपादेय तत्वों का समावेश इन आख्यानों के भीतर करते हैं। आख्यानों की शिक्षा मानव समाज के सामूहिक कल्याण तथा विश्वमंगल की अभिवृद्धि के निमित्त है। इस प्रकार आख्यान विश्वकल्याण, विश्वमंगल की अभिवृद्धि के संदेश वाहक हैं।
भारतीय संस्कृति के अनुसार मानव और देव दोनों परस्पर संबद्ध हैं। मनुष्य यज्ञों में देवों के लिए आहुति देता है, जो प्रसन्न होकर उसकी अभिलाषा पूर्ण करते हैं और अपने प्रसादों की वृष्टि उनके ऊपर निरंतर करते रहते हैं। इस प्रकार वैदिक आख्यानों से संबंधित अनेक आख्यानों का विकास उपनिषद, ब्राह्मण व आरण्यक ग्रंथों, रामायण, महाभारत और पुराणों में हुआ है। प्रसिद्ध महाकाव्यों रामायण और महाभारत में अनेक आख्यानों एवं उपाख्यानों का संकलन है। इसलिए इन्हें आख्यानकाव्य कहा गया है। ये सभी आख्यान संस्कृत भाषा में पद्यवद्ध हैं। कालांतर में इन आख्यानों को आख्यायिका कहा जाने लगा।
और संस्कृत में आख्यायिका की श्रेणी में कथादि गद्यबद्ध रचना को भी शामिल किया जाने लगा। सुंदर गद्य में रचित सरस कहानी को आख्यायिका कहा जाने लगा। यह उच्छ्वासों में बंटी होती थी, और इसमें नायक अपने वृत्त तथा चेष्टा का वर्णन स्वयं करता था। बीच-बीच में वक्त्र और अपवक्त्र छंद आ जाते थे, जबकि कथा में वक्त्र और अपवक्त्र छंद नहीं होते थे, न ही इसका विभाजन उच्छ्वासों में होता था। वर्तमान आख्यायिका स्वयं अथवा किसी अपने पात्र द्वारा ही कही गई होती है, जिसके कारण उसकी बहुत सी बातें आत्मोद्गारपरक बन जाती हैं।
संस्कृत साहित्य के साथ पाली, प्रकृत, हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं में भी भारत में आख्यान की लंबी परंपरा है। वर्तमान में प्रेम, नीति, भक्ति, वीरता आदि के निरूपण के लिए रोचक कथानक का सरस मधुर शैली में किये गए विस्तृत काव्य वर्णन को आख्यान कहा जाता है। इसके अंतर्गत विभिन्न प्रसंग अथवा खंड हो सकते हैं। आख्यान को प्रामाणिकता प्रदान करने के लिए इसमें कतिपय ऐतिहासिक स्थानों और नामों का समावेश भी कर लिया जाता है। इसमें एक प्रधान अथवा प्रमुख कथा और अन्य कुछ गौण कथाएं संघटित रहती हैं। हिन्दी में आख्यान शब्द प्राय: साधारण कथा अथवा वृतांत के रूप में ही प्रयुक्त होता है। हिन्दी साहित्य के अनुसार आख्यान के प्रमुख भेद प्रेमाख्यान, नीत्याख्यान, साहसिक आख्यान आदि हैं।
जैसे- इंद्रावती, मृगावती, नलोपाख्यान, ढोला मारूरा दूहा, छिताई वार्ता आदि। वर्तमान में आख्यान लेखन की एक अपनी स्वैच्छिक विधि साहित्यकारों ने विकसित कर ली है। बल्कि यह कहना उपयुक्त होगा कि कल्पनाशीलों ने बना ली है। आख्यान वर्तमान उपन्यास का एक प्रकार है, जिसमें उपन्यासकार पात्रों से कुछ न कहलवाकर स्वयं सब बातें कहता चलता है। इसमें पात्रों का वार्तालाप बहुत अधिक लंबी-चौड़ी नहीं हुआ करती है। क्योंकि कथा कहने वाला कवि अथवा कथाकार ही होता है। इसमें अधिकतर भूतकालिक क्रिया का प्रयोग होता है, पर दृश्यों को ठीक-ठीक प्रत्यक्ष कराने के लिए यदा- कदा वर्तमानकालिक क्रिया का भी प्रयोग होता है। छोटे आख्यान को ही आख्यानक कहा जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि किसी कथाकृति को आख्यान संज्ञा देने के लिए यह आवश्यक है कि उसके रचयिता ने कथा अथवा घटना को स्वयं देखा -सुना हो। यही कारण है कि वैदिक साहित्य तो परमेश्वर के द्वारा सृष्टि के आदिकाल में मानव को जीवन जीने की कला के रूप में उपदेशित होने के कारण अपेक्षाकृत अधिक वृत्तांतपरक और तदनुसार विशुद्ध हैं, लेकिन वैदिक साहित्य से इतर संस्कृत से लेकर पाली, प्रकृत, हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य में प्राप्य आख्यान ग्रंथ अथवा आख्यानक ग्रंथ कल्पना प्रधान ही सिद्ध होते हैं।
वैदिक, पौराणिक, ऐतिहासिक शब्दों, पात्रों के सन्दर्भ में इसी कल्पना प्रधानता, इसी कल्पनाशीलता के कारण ही कथा और आख्यानक ग्रंथों के साथ ही चरितग्रंथों और चरितकाव्यों तक में कल्पना ने इतिहास को बुरी तरह आक्रांत कर रखा है। निरंतर गतिशील साहित्य युगानुरूप अपनी विधाओं में परिवर्तन, परिवर्धन, संशोधन तथा परिष्करण करता चलता है। इनमें लक्षण पारंपरिक साहित्यिक विधाओं को लेकर ही निश्चित किए जाते हैं। उन पर जबरदस्ती घटाए नहीं जा सकते। लेकिन लंबे समय से कल्पनाशीलों के द्वारा निरंतर जबरन यह किया जाता रहा है। जिसके कारण वैदिक, पौराणिक, ऐतिहासिक शब्दों, पात्रों, कथाओं व घटनाओं के संबंध में विसंगति, विभ्रम, संशय और संदेह की स्थिति कायम है।