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बाल उत्पीड़न है गंभीर मसला

राष्ट्रीय स्तर पर हुए अध्ययनों से पता चलता है कि भारत में बच्चों के बड़े हिस्से ने किसी न किसी रूप में यौन शोषण का अनुभव किया है। कई अध्ययनों में यह अनुपात 4050 प्रतिशत तक बताया गया है। आध्यात्मिक आश्रमों, धार्मिक आवासीय विद्यालयों, मदरसों, कॉन्वेंट्स, हॉस्टलों और कोचिंग संस्थानों जैसे बंद व अनुशासित माहौल में, जहां गुरुशिष्य या शिक्षकछात्र संबंध में भारी शक्ति-असमानता होती है, वहां यह जोखिम और अधिक बढ़ जाता है।

कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने बाल यौन शोषण पर दायर एक याचिका सुनते हुए कड़ी टिप्पणी की और संबंधित क़ानूनी एजेंसियों को इन शिकायतों को गंभीरता से लेने के लिए कहा। भारत में आध्यात्मिक–धार्मिक–शैक्षणिक संस्थानों में हो रहे बाल उत्पीड़न का प्रश्न सिर्फ अपराध का नहीं, बल्कि सत्ता, आस्था और चुप्पी के गठजोड़ का सवाल है। यह समस्या अपवाद नहीं, एक संरचनागत विकृति बन चुकी है, जिस पर त्वरित और कड़े हस्तक्षेप की जरूरत है।

राष्ट्रीय स्तर पर हुए अध्ययनों से पता चलता है कि भारत में बच्चों के बड़े हिस्से ने किसी न किसी रूप में यौन शोषण का अनुभव किया है। कई अध्ययनों में यह अनुपात 40–50 प्रतिशत तक बताया गया है। आध्यात्मिक आश्रमों, धार्मिक आवासीय विद्यालयों, मदरसों, कॉन्वेंट्स, हॉस्टलों और कोचिंग संस्थानों जैसे बंद व अनुशासित माहौल में, जहां गुरु–शिष्य या शिक्षक–छात्र संबंध में भारी शक्ति-असमानता होती है, वहां यह जोखिम और अधिक बढ़ जाता है।

राष्ट्रवाद या ‘संस्कार’ की भाषा के सहारे एक ऐसी पवित्रता की छवि गढ़ी जाती है, जिसके कारण पीड़ित, परिवार और समाज शिकायत को ‘पाप’ या ‘अविश्वास’ मानकर दबा देते हैं। नतीजा यह कि जो अपराध सामान्य समाज में भी कम ही रिपोर्ट होते हैं, वे इन संस्थागत दीवारों के भीतर लगभग अदृश्य हो जाते हैं।

बड़ी संस्थाओं पर कार्रवाई न होने का पहला कारण है इन संगठनों की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक पकड़; बड़े आश्रमों, पंथों या प्रतिष्ठित स्कूलों के संचालक अक्सर राजनीतिक दलों, नौकरशाही और स्थानीय पुलिस से गहरे जुड़े होते हैं, जिससे शुरुआती शिकायत दर्ज कराना ही कठिन हो जाता है। कई मामलों में देखा गया है कि जब पीड़ित या सामाजिक संगठन शिकायत लेकर जाते हैं तो पुलिस पहले ‘समझौता’, ‘प्रतिष्ठा’ और ‘छवि’ का हवाला देकर मामला दबाने की कोशिश करती है।

दूसरा कारण है हमारे समाज की ‘अंध-श्रद्धा’; कई अनुयायी या अभिभावक खुद यह मानने को तैयार नहीं होते कि उनके पूजनीय गुरु, फादर, मौलवी या प्रिंसिपल ऐसा अपराध कर सकते हैं। कभी-कभी तो वे ही संस्थान के पक्ष में खड़े होकर पीड़ित को ही झूठा साबित करने लगते हैं। तीसरा, इन संस्थाओं का प्रशासन अक्सर यह तर्क देता है कि “पूरा संगठन बदनाम न हो, सिर्फ व्यक्ति पर दिखावटी कार्रवाई ही हो”। इसी सोच के चलते संस्थागत जवाबदेही, सिस्टम में सुधार और संरचनागत जांच टलती रहती है।

यों तो कागज पर भारत के पास कई मजबूत कानून हैं। बाल यौन अपराधों से संरक्षण अधिनियम (POCSO Act, 2012) हर तरह के यौन शोषण, उत्पीड़न और पोर्नोग्राफी को अपराध मानता है और 18 वर्ष से कम आयु के हर बच्चे को लैंगिक रूप से तटस्थ सुरक्षा देता है। यह कानून ‘विश्वास की स्थिति’ में बैठे व्यक्ति – जैसे शिक्षक, धार्मिक गुरु, वार्डन या डॉक्टर – द्वारा किए गए अपराध को ‘गंभीर’ श्रेणी में रखता है और सख्त सज़ा का प्रावधान करता है।

फिर भी, दिक्कतें प्रक्रियागत हैं। जांच एजेंसियों की संवेदनशीलता की कमी, पीड़ित के बार-बार बयान होना, ट्रायल में देरी और गवाहों पर सामाजिक–आर्थिक दबाव के कारण बहुत से मामले या तो दर्ज नहीं हो पाते या अदालत तक पहुंचते-पहुंचते कमजोर हो जाते हैं। कई बार स्थानीय पुलिस या बाल अधिकार आयोगों तक गई शिकायतों पर भी महीनों कार्रवाई नहीं होती, जैसा हाल में कुछ बड़े धार्मिक संस्थानों से जुड़े मामलों में याचिकाकर्ताओं ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष भी उठाया।

ऐसे में पीड़ितों व उनके परिवार की सबसे पहली और कठिन जिम्मेदारी है चुप्पी तोड़ना; बच्चों को यह बताया जाना जरूरी है कि कोई भी ‘गुरु’, ‘फादर’, ‘मौलवी’, ‘भाईया’ या ‘दीदी’ यदि उनकी मर्यादा का उल्लंघन करे, शरीर को ग़लत  तरीके से छुए, तो यह गलती नहीं, अपराध है। माता–पिता और अभिभावकों को बच्चों की बात को गंभीरता से सुनना, उनके व्यवहार में अचानक आए बदलाव (डर, चिड़चिड़ापन, किसी स्थान या व्यक्ति से घबराहट) को संकेत मानना चाहिए। उन्हें धार्मिक या संस्थागत प्रतिष्ठा से ऊपर अपने बच्चों की सुरक्षा को रखना चाहिए।

घटना होने पर तुरंत स्थानीय पुलिस या विशेष किशोर पुलिस इकाई को सूचना देना और पॉक्सो एक्ट के तहत एफआईआर दर्ज कराने पर जोर देना आवश्यक है। क्योंकि कानून यह भी कहता है कि शिकायत मिलते ही बच्चे की सुरक्षा, चिकित्सा और पुनर्वास के लिए तत्काल कदम उठाए जाएं। साथ ही, बाल अधिकार आयोगों, विश्वसनीय बाल अधिकार संगठनों या कानूनी सहायता समूहों से संपर्क कर पीड़ित के लिए परामर्श, सुरक्षित ठिकाना और कानूनी सहयोग सुनिश्चित किया जा सकता है।

अदालतें सिर्फ व्यक्तिगत मामलों में सज़ा देने तक सीमित न रहकर संस्थागत जवाबदेही तय कर सकती हैं। जैसे किसी बड़े आश्रम, कॉन्वेंट या स्कूल में दोहराए जा रहे आरोपों के मामले में स्वत: संज्ञान लेकर स्वतंत्र जांच कमेटी, विशेष जांच दल या मॉनिटरिंग मेकनिज्म बनाने के निर्देश देना। न्यायालय समयबद्ध ट्रायल, पीड़ित गवाहों की सुरक्षा, मुआवजा और मनो–सामाजिक पुनर्वास को अनिवार्य करने वाले विस्तृत दिशानिर्देश जारी कर सकते हैं, ताकि हर निचली अदालत में एक समान मानक लागू हो।

साथ ही, सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालय सरकारों को बाध्य कर सकते हैं कि सभी धार्मिक–आध्यात्मिक–शैक्षणिक संस्थानों के लिए बाल सुरक्षा नीति और आंतरिक शिकायत तंत्र कानूनी रूप से अनिवार्य हो, जिसकी नियमित ऑडिटिंग हो और उल्लंघन पर पंजीकरण रद्द करने तक की कार्यवाही हो सके।

जब तक आस्था का आवरण, सत्ता का संरक्षण और समाज की चुप्पी मिलकर अपराधियों के लिए ढाल बने रहेंगे, तब तक कानून की धार भी कुंद रहेगी। यह लड़ाई सिर्फ अदालतों की नहीं, परिवार, मीडिया, नागरिक समाज और जिम्मेदार धार्मिक–शैक्षणिक नेतृत्व की है, जो बच्चों की गरिमा और सुरक्षा को किसी भी ‘पवित्र’ संस्था से ऊपर रख सके।

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