ब्रांडेड और जेनेरिक दवाओं के बीच का अंतर केवल नाम और कीमत का है, प्रभावशीलता का नहीं। भारत जैसे देश में, जहां स्वास्थ्य सेवाएं पहले से ही कई लोगों के लिए सुलभ नहीं हैं, जेनेरिक दवाएं एक वरदान हैं। लेकिन फार्मा कंपनियों के लालच और भ्रामक मार्केटिंग के कारण मरीजों को अनावश्यक रूप से महंगी दवाएं खरीदनी पड़ रही हैं।
भारत में स्वास्थ्य सेवा एक ऐसा क्षेत्र है, जहां लाखों लोग अपनी जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए दवाओं पर निर्भर हैं। लेकिन दवाओं के बाजार में एक बड़ा सवाल हमेशा चर्चा में रहता है, ब्रांडेड दवाएं या जेनेरिक दवाएं? इन दोनों के बीच का अंतर और इनका महत्व समझना न केवल आम जनता के लिए जरूरी है, बल्कि यह भी जानना जरूरी है कि कैसे फार्मास्युटिकल कंपनियां भोले-भाले ग्राहकों का शोषण कर रही हैं। यह एक ऐसा विषय है जिसने दर्द के व्यापार को काफ़ी बढ़ावा दिया है।
सबसे पहले, हमें यह समझना होगा कि ब्रांडेड और जेनेरिक दवाएं क्या हैं? ब्रांडेड दवाएं वे होती हैं, जो किसी फार्मास्युटिकल कंपनी द्वारा अपने ब्रांड नाम के तहत बेची जाती हैं। ये दवाएं आमतौर पर महंगी होती हैं, क्योंकि इनमें कंपनी का ब्रांड वैल्यू, मार्केटिंग लागत और अनुसंधान और विकास का खर्च शामिल होता है। दूसरी ओर, जेनेरिक दवाएं वही दवाएं होती हैं, जिनमें वही सक्रिय रासायनिक तत्व (Active Pharmaceutical Ingredient) होते हैं, जो ब्रांडेड दवाओं में होते हैं, लेकिन इन्हें किसी ब्रांड नाम के तहत नहीं बेचा जाता। जेनेरिक दवाएं आमतौर पर सस्ती होती हैं, क्योंकि इनमें मार्केटिंग और ब्रांडिंग का खर्च नहीं होता। उदाहरण के तौर पर, क्रोसिन का जेनेरिक विकल्प पैरासिटामोल है, जो उसी तरह काम करता है, लेकिन इसकी कीमत बहुत कम होती है।
भारत जैसे देश में, जहां अधिकांश आबादी मध्यम और निम्न-आय वर्ग से आती है, जेनेरिक दवाओं का महत्व बहुत अधिक है। ये दवाएं न केवल सस्ती होती हैं, बल्कि गुणवत्ता में भी ब्रांडेड दवाओं के समान होती हैं। भारत सरकार ने जेनेरिक दवाओं को बढ़ावा देने के लिए ‘जन औषधि योजना’ शुरू की है, जिसके तहत देश भर में जन औषधि केंद्र खोले गए हैं। इन केंद्रों पर जेनेरिक दवाएं ब्रांडेड दवाओं की तुलना में 50-90% तक सस्ती मिलती हैं।
उदाहरण के लिए, एक ब्रांडेड दवा, जैसे कि टेल्मिसार्टन जो उच्च रक्तचाप के लिए उपयोग की जाती है, की 10 गोलियों की कीमत 200-300 रुपये हो सकती है। वहीं, टेल्मिसार्टन की जेनेरिक दवा की कीमत 20-50 रुपये हो सकती है। यह अंतर गरीब और मध्यम वर्ग के मरीजों के लिए बहुत बड़ा है, जो अपनी जिंदगी बचाने के लिए इन दवाओं पर निर्भर हैं।
जानकारों के मुताबिक फार्मास्युटिकल कंपनियों की लूट का सबसे बड़ा कारण उनकी मार्केटिंग रणनीति और ब्रांडिंग है। ये कंपनियां ब्रांडेड दवाओं को बढ़ावा देने के लिए भारी मात्रा में पैसा खर्च करती हैं। डॉक्टरों को मुफ्त नमूने, विदेश यात्राएं और अन्य प्रलोभन दिए जाते हैं ताकि वे मरीजों को ब्रांडेड दवाएं लिखें। इसका नतीजा यह होता है कि मरीज, जो ज्यादातर दवाओं की तकनीकी जानकारी से अनजान होते हैं, महंगी दवा खरीदने के लिए मजबूर हो जाते हैं।
इसके अलावा, कई फार्मा कंपनियां एक ही दवा को अलग-अलग ब्रांड नामों से भी बेचती हैं, जिससे बाजार में भ्रम पैदा होता है। उदाहरण के लिए, पैरासिटामोल को विभिन्न कंपनियां क्रोसिन, कैल्पॉल वी डोलो आदि नामों से बेचती हैं, लेकिन इन सभी में एक ही सक्रिय तत्व होता है। मरीजों को लगता है कि ब्रांडेड दवा ज्यादा प्रभावी होगी, जबकि हकीकत में जेनेरिक दवा भी उतनी ही प्रभावी होती है।
भारत में जेनेरिक दवाओं के प्रति कई मिथक प्रचलित हैं, जो फार्मा कंपनियों द्वारा फैलाए गए हैं। एक आम धारणा है कि जेनेरिक दवाएं कम गुणवत्ता वाली होती हैं। यह पूरी तरह गलत है। भारत में जेनेरिक दवाओं का निर्माण ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट, 1940 के तहत सख्त नियमों के अधीन होता है। ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया यह सुनिश्चित करता है कि जेनेरिक दवाएं गुणवत्ता और प्रभावशीलता में ब्रांडेड दवाओं के बराबर हों।
हालांकि, कुछ छोटी दवा कंपनियां, जो जेनेरिक दवाएं बनाती हैं, गुणवत्ता नियंत्रण में कमी कर सकती हैं। लेकिन यह समस्या केवल जेनेरिक दवाओं तक सीमित नहीं है, कुछ ब्रांडेड दवाओं में भी गुणवत्ता की कमी देखी गई है। इसलिए, मरीजों को चाहिए कि वे केवल विश्वसनीय जन औषधि केंद्रों या लाइसेंस प्राप्त फार्मेसी से ही दवाएं खरीदें।
भारत सरकार ने जेनेरिक दवाओं को बढ़ावा देने के लिए कई कदम उठाए हैं, लेकिन अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। जन औषधि केंद्रों की संख्या बढ़ाने, जागरूकता अभियान चलाने और डॉक्टरों को जेनेरिक दवाएं लिखने के लिए प्रोत्साहित करने की जरूरत है। साथ ही, मरीजों को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। उन्हें अपने डॉक्टर से पूछना चाहिए कि क्या जेनेरिक दवा उपलब्ध है और क्या वह ब्रांडेड दवा का विकल्प हो सकती है।
फार्मा कंपनियों को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए। मुनाफा कमाना गलत नहीं है, लेकिन मरीजों की जिंदगी के साथ खिलवाड़ करना अनैतिक है। सरकार को ऐसी नीतियां लागू करनी चाहिए, जो फार्मा कंपनियों को जेनेरिक दवाओं के उत्पादन और वितरण में प्रोत्साहित करें। साथ ही, दवाओं की कीमतों पर सख्त नियंत्रण होना चाहिए ताकि मरीजों को उचित मूल्य पर दवाएं मिल सकें।
ब्रांडेड और जेनेरिक दवाओं के बीच का अंतर केवल नाम और कीमत का है, प्रभावशीलता का नहीं। भारत जैसे देश में, जहां स्वास्थ्य सेवाएं पहले से ही कई लोगों के लिए सुलभ नहीं हैं, जेनेरिक दवाएं एक वरदान हैं। लेकिन फार्मा कंपनियों के लालच और भ्रामक मार्केटिंग के कारण मरीजों को अनावश्यक रूप से महंगी दवाएं खरीदनी पड़ रही हैं। यह समय है कि हम जागरूक हों, जेनेरिक दवाओं को अपनाएं और सरकार से मांग करें कि वह दवा बाजार में पारदर्शिता और नियंत्रण सुनिश्चित करे। केवल जागरूकता और सही नीतियों के माध्यम से ही हम इस लूट को रोक सकते हैं और हर भारतीय को सस्ती और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा प्रदान कर सकते हैं।