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बौद्धिक स्वतंत्रता के दुश्मन

जॉर्ज ऑरवेल ने लिखा है कि  कोई भी समाज तब सर्वाधिकारवादी हो जाता है जब उसकी संस्थाएँ सिर्फ नाम की रह जाती हैं — जब शासन के ढांचे तो बने रहते हैं, पर वे वास्तविक जिम्मेदारी निभाना छोड़ देते हैं। शासक वर्ग न तो अपने कर्तव्यों को निभाता है, न ही जवाबदेही स्वीकार करता है — पर फिर भी वह या तो बल प्रयोग से, या छल-कपट से सत्ता पर काबिज़ बना रहता है। ऐसे में संविधान, संसद, प्रेस — सब कुछ बना रहता है, लेकिन उनमें कोई आत्मा नहीं होती।जब समाज में यह तय कर दिया जाए कि किन दो–तीन मुद्दों पर केवल एक ही “मान्य” दृष्टिकोण हो सकता है — और बाकी सब को निंदनीय या देशद्रोही कहा जाए — तब वहाँ रचनात्मकता का अंत हो जाता है।

महान‌ लेखक जॉर्ज ऑरवेल ने एक विस्तृत लेख ‘‘द प्रिवेन्शन ऑफ लिटेरेचर’’ 1946 में लिखा था। यह आज के लोकतांत्रिक विश्व की बौद्धिक स्थिति को समझने के लिए आश्चर्यजनक रूप से सामयिक है। विशेष कर वर्तमान भारत के लिए।

यद्यपि अग्रणी लोकतांत्रिक देशों के संदर्भ में भी इतना कठोर शीर्षक किसी को अटपटा लग सकता है, कि वैसे देशों में ‘लेखन पर रोक’ जैसी बात का क्या मतलब!? क्यों कि लोकतंत्र की तो सब से बुनियादी विशेषता ही है – अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। तब लोकतांत्रिक देशों में लेखन पर रोक कहना बेतुकी बात लगती है।

पर ऑरवेल का उक्त लेख पढ़कर इस की गंभीरता, और महत्व को हर विचारवान पाठक समझ सकेंगे। मुख्यतः यह सोवियत, कम्युनिस्ट समर्थक मानसिकता वाले यूरोपीय बौद्धिकों की आलोचना था, जिसे भारत में ‘प्रगतिशील’ बौद्धिकता या प्रगतिवाद कहने का चलन था। उस जमाने में यह बौद्धिकता पूरे लोकतांत्रिक विश्व में अत्यंत प्रभावशाली थी। जो अगले चार दशक तक मजबूती से जमी रही, और अभी भी अपना प्रभाव कमोबेश रखती है। जिसे भारत में भी बखूबी देखा जा सकता है, जब कथित दक्षिणपंथी कहलाने वाले दल और बौद्धिक भी उसी प्रगतिवाद की अनेक धारणाओं और निष्पत्तियों को पूरे आदर, विश्वास के साथ उपयोग में लाते और उस पर चलते भी हैं। प्रायः बिना जाने भी कि यह या वह धारणा मूलतः कम्युनिस्ट यानी प्रगतिवादी मूल की है।

पर जिस स्थिति पर ऑरवेल ने ऊँगली रखी थी, वह आज भी उतनी ही विचारणीय है। क्यों कि उस में दी गई स्थितियों को हम आज अपने समक्ष घटते, होते देख सकते हैं। नीचे उसी लेख के कुछ अंशों का हिन्दी रूपांतर है। इस में ‘सर्वाधिकारवाद’ और ‘लेखक’ के आशय में पत्रकारिता, शैक्षिक, बौद्धिक क्षेत्र में संलग्न लोगों, पाठ्य-पुस्तक लेखन, और तमाम पाठ्य सामग्रियों को भी जोड़ कर समझना चाहिए। इस लेख की चेतावनी कितनी सटीक साबित हुई, यह तब से सोवियत रूस के इतिहास और‌ हश्र से भी यह देखा जा सकता है। वहाँ साहित्य और कलात्मक रचनाधर्मिता की, चिंतन तथा  सामाजिक विषयों की शिक्षा का कितना पतन हुआ, इस का संपूर्ण आकलन करना तक कठिन है।

पर यह तो सामने है कि जिस रूस में उस से पचास वर्ष पहले तक, यानी सत्ता पर कम्युनिस्ट कब्जा बनने से पहले तक, असंख्य विश्व-प्रसिद्ध रचनाकार और चिंतक होते रहे, वहाँ साहित्य लेखन और सामाजिक, दार्शनिक, शैक्षिक चिंतन लगभग शून्य हो गया। साइंस और टेक्नोलॉजी के सिवा सभी विषयों की सामान्य शिक्षा घोर विकृत होकर अत्यंत दयनीय हो गई। यह रूस में एक सर्वाधिकारवादी राजनीति के वर्चस्व का परिणाम था।

उसी दुर्गति के संदर्भ में ऑरवेल ने अपने देश इंग्लैंड को जोड़ते हुए चेतावनी दी थी कि सर्वाधिकारवादी मानसिकता केवल सर्वाधिकारी शासन वाले देशों में ही होती। बल्कि वह ऐसे उदार लोकतांत्रिक देशों में भी तरह-तरह के रूप में फैल सकती है जिस में साहित्य, इतिहास और वर्तमान के बारे में विभिन्न बिन्दुओं पर सच्चाई को दबाने, झूठ फैलाने, कुछ मनमानी बातों, नारों, निष्कर्षों को थोपने, तथा वास्तविक तथ्यों में हेरफेर करने, या अनेक समाचारों पर पर्दा डालने या कमतर दिखाने की प्रवृत्ति होती है। यह सब भारत में भी लंबे समय से, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही वृद्धिमान रूप से होता रहा है। उस के नतीजे भी वही होते गये हैं जिस की जॉर्ज ऑरवेल ने संभावना बताई थी।

इसलिए उन की यह बातें रचनात्मक लेखन, पत्रकारिता और शैक्षिक जगत के संदर्भ में समान रूप से चिंतनीय हैं। नीचे दिए गए अंतिम अंश के निष्कर्ष भारत की वर्तमान बौद्धिक स्थिति पर उतने ही लागू हैं जितने अस्सी वर्ष पहले ऑरवेल ने इंग्लैंड के लिए चेतावनी रूप में दिये थे। वह चेतावनी ही हमारे लिए विशेषतः विचारणीय है।

इस के नीचे सभी अंश जॉर्ज ऑरवेल के अपने शब्दों में   ——-

बिलकुल निम्न स्तर से ऊपर, सभी साहित्य लेखन अपने अनुभवों को दर्ज कर अपने समकालीनों के दृष्टिकोण को प्रभावित करने का प्रयास है। और जहाँ तक अभिव्यक्ति स्वतंत्रता की बात है, किसी पत्रकार और सब से  ‘अ-राजनीतिक’  रचनात्मक लेखक में अधिक अंतर नहीं है। जब पत्रकार को झूठ लिखने, या जिसे वह महत्वपूर्ण समझता है वैसा समाचार दबाने के लिए बाध्य होना पड़ता है तो वह स्वतंत्र नहीं है और अपनी यह स्थिति वह जानता है। किन्तु रचनात्मक लेखक भी स्वतंत्र नहीं है यदि उसे अपनी अनुभूतियों को झुठलाना पड़े, जिन अनुभूतियों को वह सही समझता है। वह अपने लेखन में वास्तविकता को विकृत कर दे सकता है, पर अपने ही मस्तिष्क की समझ को गलत प्रस्तुत नहीं कर सकता। जिस चीज को वह नापसंद करता है उस के बारे में निष्ठा से नहीं कह सकता कि वह उसे पसंद है, या जिस पर उसे विश्वास नहीं उस पर विश्वास होना नहीं कह सकता। यदि वह ऐसा करने के लिए बाध्य हो जाए तो इस का एकमात्र परिणाम होगा कि उस की रचनात्मक क्षमता सूख जाएगी। वह विवादास्पद विषयों से दूर रहकर भी इस समस्या को हल नहीं कर सकता। विशुद्ध अ-राजनीतिक साहित्य जैसी कोई चीज नहीं होती, और हमारे युग में तो और भी नहीं, जब किसी न किसी राजनीतिक प्रकार के भय, घृणा और वफादारियाँ हरेक की चेतना की सतह के निकट हैं। यहाँ तक कि केवल एक टैबू (जिस पर कहने-लिखने से  बचना हो) विषय भी मस्तिष्क को दुष्प्रभावित कर सकता है, क्यों कि यह खतरा बना रहेगा कि किसी भी विषय पर स्वतंत्रता पूर्वक अवलोकन करने, लिखने में वह उस वर्जित विषय तक न पहुँच जाए। इस का निष्कर्ष यह है कि सर्वाधिकारवाद का वातावरण किसी भी प्रकार के गद्य-लेखक के लिए मारक होता है। और किसी भी सर्वाधिकारवादी समाज में यदि दो पीढ़ी से अधिक ऐसी स्थिति रही तो यह संभव है कि गद्य साहित्य, जो विगत चार सौ सालों से रहा है, वस्तुत: निश्चित रूप से समाप्त हो जाए। …

सर्वाधिकारवाद किसी विश्वास, फेथ, रखने के बदले एक  संगतिहीन वैचारिक प्रवृत्ति, स्कीजोफ्रेनिया, को बढ़ावा देता है। कोई समाज सर्वाधिकारवादी हो जाता है जब उस की संरचनाएं मनमाने तौर से दिखावटी हो जाती हैं। अर्थात् जब उस का शासक वर्ग अपना काम छोड़ देता है, पर ताकत या धोखाधड़ी द्वारा सत्ता से चिपके रहने में सफल रहता है। ऐसा समाज चाहे जितने समय बना रहे पर वह न तो सहिष्णु और न ही बौद्धिक रूप से स्थिर हो सकता है। वह न तो सच्चाई को दर्ज करने की अनुमति देता है, न भावनात्मक निष्ठा को, जो साहित्य लेखन के लिए जरूरी होता है। किन्तु सर्वाधिकारवादी मानसिकता से भ्रष्ट हो जाने के लिए आवश्यक नहीं कि कोई सर्वाधिकारवादी शासन वाले देश में रहे। समाज में कुछ विचारों का मात्र प्रचलन भी ऐसा विष फैला सकता है कि एक के बाद एक विषयों पर लिखना असंभव हो जाए। जहाँ भी किसी विषय पर – या दो विषयों पर, जो प्रायः होता है – खास तरह का जड़सूत्री मतवाद, ऑर्थोडॉक्सीज, थोप दी जाए तो अच्छा लेखन बंद हो जाता है। …

गद्य साहित्य बुद्धिवादी युग की देन है, जब व्यक्ति की वैचारिक, भावनात्मक स्वतंत्रता को स्वीकृति मिली। इस बौद्धिक स्वतंत्रता को चोट पहुँचाने से क्रमशः पत्रकार, समाजशास्त्रीय लेखक, इतिहासकार, उपन्यासकार, समालोचक, और कवि पंगु बनते हैं। उसी क्रम में। …

अभी तक सर्वाधिकारवाद पूरी तरह कहीं सफल नहीं हुआ है। हमारा अपना समाज (ब्रिटेन), मोटे तौर पर, अभी तक उदार है। स्वतंत्र अभिव्यक्ति के अपने अधिकार का प्रयोग करने के लिए आप को आर्थिक दबाव और लोकमत के ताकतवर हिस्सों से लड़ना पड़ेगा, लेकिन यहाँ किसी सीक्रेट पुलिस का दबाव नहीं है। आप लगभग कुछ भी बोल या छाप सकते हैं जब तक कि आप किनारे रह कर यह करने के लिए तैयार हों। लेकिन सब से अनिष्टकर स्थिति वह है जब जिन के लिए बौद्धिक स्वतंत्रता सब से मूल्यवान है वे ही इस के सचेत शत्रु हो जाएं। आम जनता इस विषय की ऐसे या वैसे कोई परवाह नहीं करती। आम लोग किसी मतभेद रखने वाले व्यक्ति को न सताने जाते हैं, न उसे बचाने के लिए ही कोई प्रयास करते हैं। आम लोग एक साथ इतने विवेकशील और इतने मूढ़ भी हैं कि सर्वाधिकारवादी दृष्टिकोण नहीं रख सकते। बौद्धिक गरिमा पर सीधी, सचेत चोट स्वयं बौद्धिकों द्वारा की जाती है।…

लेकिन जो भी लेखक सर्वाधिकारवादी दृष्टिकोण अपनाता है, जो भी सच लिखने-बोलने वाले को प्रताड़ित करने और वास्तविकता की लीपापोती करने के पक्ष में दलीलें गढ़ता है, वह स्वयं लेखक के रूप में अपने को खत्म करता है। तब इस से उस के बचने का कोई उपाय नहीं। स्वतंत्र लिखने-बोलने वाले के विरुद्ध ‘व्यक्तिवादी’, ‘आरामकुर्सी पर रहने वाला’, जैसे आक्षेप या ऐसी निरर्थक दलीलें कि ‘सच्चा व्यक्तित्व वही है जो अपने समाज के साथ जुड़कर चलता है’, आदि इस तथ्य पर पर्दा नहीं डाल सकती कि एक बिका हुआ दिमाग बेकार हो चुका दिमाग है। जब तक स्वत:स्फूर्त लिखने बोलने की गुंजाइश न हो तब तक साहित्यिक लेखन असंभव है, बल्कि तब तो भाषा तक पथरा जाती है। भविष्य में यदि कभी मानव मस्तिष्क बिलकुल ही कुछ और हो जाए, और तब हम साहित्यिक लेखन को बौद्धिक सत्यनिष्ठा से अलग करना सीख लें तो और बात है। किन्तु आज के लिए हम जानते हैं कि मानवीय कल्पनाशीलता और रचनात्मकता भी, कुछ जंगली जानवरों की तरह ही, कैद में नहीं फलती-फूलती। कोई भी लेखक या पत्रकार जो इस से इंकार करता है – और आज सोवियत संघ की प्रशंसा करने वाले लगभग सभी विवरणों में खुले या छिपे यही चीज है – वह वस्तुत: अपने ही विनाश की माँग कर रहा है।(अनुवाद लेखक द्वारा)

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