Naya India-Hindi News, Latest Hindi News, Breaking News, Hindi Samachar

युवा विद्रोह में अब नया क्या है?

जेन-जी कोई नई परिघटना नहीं है। मगर पिछले एक सदी में जब कभी युवाओं ने ऐसे तेवर अपनाए, तो लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंदर विकल्प होने का भरोसा उनमें बना रहता था। उदाहरण के तौर जेपी आंदोलन और असम आंदोलन से लेकर अन्ना आंदोलन तक पर गौर किया जा सकता है। मगर अब दुनिया के कई देशों में लोकतंत्र का दायरा तोड़ने की प्रवृत्ति साफ देखी जा सकती है। इसलिए इस स्थिति के अर्थ को सिर्फ अशांति का जोखिम उठाते हुए नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।

जेनेरेशन जेड (Gen-Z)  शब्द नया नहीं है, लेकिन राजनीतिक शब्दावली में इसकी नई-नई एंट्री हुई है। ऐसा हुए अभी दो महीने पूरे नहीं हुए हैं, लेकिन सत्ताधारियों और कानून-व्यवस्था की मशीनरी के लिए यह शब्द सिरदर्द बन गया है। किस हद तक- इसका अंदाजा इस महीने के पहले हफ्ते में छपी इस खबर से मिलता है।

‘मिली जानकारी के मुताबिक नेपाल में हाल के जेन-जी विरोध प्रदर्शनों के मद्देनजर दिल्ली पुलिस आयुक्त सतीश गोलचा ने तीन इकाइयों- इंटेलीजेंस ब्रांच, ऑपरेशन्स यूनिट और दिल्ली सशस्त्र पुलिस- को अगर वैसी ही स्थिति राष्ट्रीय राजधानी में उत्पन्न हुई, तो उससे निपटने के लिए आपात योजना तैयार रखने का निर्देश दिया है। बताया जाता है कि एक बैठक में गोलचा ने दो विशेष पुलिस आयुक्तों को पुलिस के पास उपलब्ध गैर-जानलेवा हथियारों के ऑडिट के लिए एक कमेटी बनाने को कहा।

उनसे कहा गया है कि ऐसे हथियारों की और जरूरत हो, तो वे सुझाव दें। वरिष्ठ अधिकारियों ने बताया कि ये निर्देश बड़े पैमाने पर युवा संचालित, नेतृत्व-विहीन प्रदर्शनों की संभावना को ध्यान में रखते हुए दिए गए हैं, जैसाकि काठमांडू और नेपाल के अन्य हिस्सों में देखने को मिला था। ऐसे विरोध प्रदर्शन भारत में भी फैल सकते हैं या दिल्ली में वैसी जन-गोलबंदी को प्रेरित कर सकते हैं।’ (Exclusive: After Nepal’s Gen Z protests, Delhi Police chief asks units +to ready plan for similar unrest .India News – The Indian Express)

इसके पहले लद्दाख के लेह में पूर्ण राज्य का दर्जा और लद्दाख को संविधान की छठी अनुसूची में डालने की मांग को लेकर चल रहा आंदोलन गुजरे 24 सितंबर को हिंसक रूप ले चुका था। उस आंदोलन में भी सबसे ज्यादा भागीदारी युवा समूहों की ही थी। इस कारण लद्दाख के आंदोलन को भी मीडिया चर्चाओं में जेन-जी परिघटना से जोड़ा गया।

उसके पहले नेपाल के जेनेरेशन जेड (जेन-जी) ने अपने उम्र वर्ग को एक विशिष्ट राजनीतिक समूह की पहचान दी थी। तब से मीडिया चर्चाओं में हर वैसे प्रतिरोध के सिलसिले में इस शब्द का इस्तेमाल हो रहा है, जिसमें युवा राजनीतिक नेतृत्व के खिलाफ लामबंद होते दिख रहे हों। 1996 के बाद जन्मे युवाओं को जेन-जी श्रेणी में रखा जाता है- यानी वे लोग जिनकी उम्र 30 साल से कम हो।

नेपाल में सोशल मीडिया पर प्रतिबंध के खिलाफ गुजरे 8-9 सितंबर को इस पीढ़ी के युवाओं ने विद्रोह किया और सत्ता पलट दी। इसके बाद उन्होंने कार्यवाहक सरकार की प्रमुख (सुशीला कार्की) के चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाई। इसके लिए सोशल मीडिया ऐप डिस्कॉर्ड का इस्तेमाल किया गया। यह एक नई बात थी।

जिस समय नेपाल में यह सब हुआ, तभी इंडोनेशिया में भी सरकार विरोधी प्रदर्शनों का दौर आया हुआ था। नेपाल में घटनाएं इतनी तेजी हुईं कि उन पर दुनिया भर का तुरंत ध्यान गया। और तब इंडोनेशिया के पर्यवेक्षकों का भी ध्यान इस ओर गया कि वहां सड़कों पर उतरे अधिकांश लोग जेन-जी श्रेणी वाले ही हैं।

कुछ देशों में जहां नेपाल के पहले ऐसे प्रदर्शन हुए थे, अब उनमें भी जेन-जी की रही भूमिका पर चर्चा हो रही है। मसलन, श्रीलंका और बांग्लादेश में जन प्रतिरोध क्रमशः 2022 और 2024 में हुए। श्रीलंका में अरागलया नाम से मशहूर हुए जन आंदोलन के कारण तत्कालीन राष्ट्रपति गोटाबया राजपक्षे और उनके परिवार को सत्ता छोड़ कर देश से भागना पड़ा था। बांग्लादेश में प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद को देश से भागना पड़ा। दोनों देशों के आंदोलनों में युवाओं की बड़ी भूमिका थी। बांग्लादेश में तो आंदोलन का नेतृत्व ही छात्रों के हाथ में था, जिन्होंने बाद में मोहम्मद युनूस के नेतृत्व में कार्यवाहक सरकार के गठन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

मगर तब उन आंदोलनकारी समूहों की पहचान Gen-Zee के रूप में नहीं की गई थी। नेपाल से यह शब्द प्रचलन में आया। उसके बाद जब मोरक्को में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए, तो वहां से भी डिस्कॉर्ड ऐप के इस्तेमाल की खबरें आईं।

नेपाल में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद से गुजरे डेढ़ महीने में कई देशों में ऐसे विरोध प्रदर्शन हुए हैं, जिनमें युवाओं ने बढ़-चढ़ कर भागीदारी की है। उन सबको Gen-Zee प्रोटेस्ट कहा गया है। उन पर एक नजर डालेः (23 अक्टूबर तक)

देश    विरोध प्रदर्शन का मुख्य कारण   परिणाम/ स्थिति

नेपाल  भ्रष्टाचार, सरकार में भाई-भतीजावाद     प्रधानमंत्री का इस्तीफा

मेडागास्कर     जीवन स्तर में गिरावट, भ्रष्टाचार राष्ट्रपति देश छोड़ कर भागे,

सेना ने सत्ता संभाली

मोरक्को स्वास्थ्य और शिक्षा पर कम सरकारी खर्च       बजट बढ़ाया गया

इंडोनेशिया      आर्थिक असंतोष, पुलिस बर्बरता   आंदोलन जारी

फिलीपींस      भ्रष्टाचार       आंदोलन जारी

केन्या  टैक्स वृद्धि, आर्थिक असमानता  बिल रद्द, आंदोलन सफल

पेरू    भ्रष्टाचार, संसद की अलोकप्रियता राष्ट्रपति पर महाभियोग, विरोध जारी

मालदीव मीडिया कानून की मांग, भ्रष्टाचार आंदोलन जारी

टोगो   बेरोज़गारी, संविधान संशोधन की मांग    आंदोलन जारी

इटली   गाजा मानव संहार का विरोध, आर्थिक कठिनाई    आंदोलन जारी

तो कुल मिला कर जेन-जी की परिघटना के दो पहलू हैः 30 साल से कम उम्र के युवाओं की व्यापक भागीदारी और सोशल मीडिया का उपयोग। अलग-अलग ये दोनों बातें अतीत के सरकार या व्यवस्था विरोधी कई आंदोलनों के साथ जुड़ी रही है। हर ऐसे आंदोलन में, जो वर्गीय आधार पर संगठित नहीं हुआ हो, युवाओं की भागीदारी महत्त्वपूर्ण रहती आई है। उस युग में भी, जब सोशल मीडिया या इंटरनेट नहीं थे।

सोशल मीडिया की शुरुआत 2007 से मानी जाती है, जब स्मार्ट फोन चलन में आए। उसके बाद 2010 के दशक में अनेक आंदोलनों में सोशल मीडिया का खूब इस्तेमाल हुआ। उनमें अरब स्प्रिंग से लेकर ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट मूवमेंट और भारत का अन्ना आंदोलन शामिल हैं। उन आंदोलनों में भी युवाओं की प्रमुख भागीदारी थी। तब मिलेनियल्स (1981 से 1996 के बीच जन्मी पीढ़ी) युवा थे। उसके पहले के आंदोलनों में भी उस समय की युवा पीढ़ी की भूमिका साफ रेखांकित की जा सकती है।

इसलिए आज जो हो रहा है, उसे सिर्फ एक पीढ़ी के विद्रोह के रूप में देखना एक सीमित नजरिया होगा। असल सवाल यह है कि ऐसे विद्रोह क्यों हो रहे हैं? गौरतलब है कि इनमें से अधिकांश विद्रोह अथवा प्रतिरोध उन देशों में हुए हैं, जहां निर्वाचित सरकारें हैं। यानी वे सरकारें, जिनकी वैधता मतदान से बनी है। श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल में भी युवाओं के विद्रोह से जो सरकारें हटीं, वे निर्वाचन से सत्ता में आई थीं। बांग्लादेश में हुआ चुनाव विवादास्पद था, मगर यही बात श्रीलंका और नेपाल के बारे में नहीं कही जा सकती।

गौरतलब है कि फ्रांस और अमेरिका में भी यह जन प्रतिरोध का दौर है। फ्रांस में तो सिलसिला काफी लंबा हो चुका है। चूंकि वहां प्रतिरोध का नेतृत्व ट्रेड यूनियनों और लेफ्ट समूहों के हाथ में है, इसलिए उन्हें जेन-जी आंदोलन का हिस्सा नहीं बताया गया है। इटली में भी बड़ी भूमिका ट्रेड यूनियनों की रही, मगर गजा मानव संहार के खिलाफ लाखों की संख्या में नौजवान भी उनके साथ आ गए।

अमेरिका की कहानी अलग है, जिसे अलग से समझने की जरूरत है। इसलिए कि अमेरिका में हो रहे No Kings (हमें राजा नहीं चाहिए) प्रोटेस्ट्स का संदर्भ अलग है। इस विरोध प्रदर्शन की कोई एक मांग नहीं है। ये प्रदर्शन अमेरिका में गहराते जा रहे सामाजिक और राजनीतिक ध्रुवीकरण का हिस्सा हैं, जिनमें एक तरह के संभावित गृह युद्ध के संकेत देखे जा रहे हैं।

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी स्थित ऐश सेंटर फॉर डेमोक्रेटिक गवर्नेंस एंड इनोवेशन ने इसी महीने अपनी एक अध्ययन रिपोर्ट में बताया है कि राष्ट्रपति के रूप में डॉनल्ड ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में विरोध प्रदर्शनों की संख्या और उनका दायरा- दोनों में बढ़ोतरी देखने को मिली है। सेंटर ने कहा है- ‘ऐसे जिलों (counties) की संख्या में स्पष्ट वृद्धि हुई है, जहां महीने में कम-से-कम एक विरोध प्रदर्शन हुआ हो। ट्रंप  के पहले कार्यकाल में ऐसे प्रदर्शनों का रिकॉर्ड बना था, जो अब टूट गया है। (उनके पहले कार्यकाल की तुलना में) ये प्रदर्शन अब देश के उन हिस्सों में और दूर-दराज तक पहुंच गए हैं, जिन्हें ट्रंप का प्रभाव क्षेत्र माना जाता है।’ (The Resistance Reaches into Trump Country – Ash Center)

पिछले 14 जून के बाद 18 अक्टूबर को एक बार फिर से पूरे अमेरिका में No Kings प्रदर्शनों का आयोजन हुआ। इनमें 70 लाख से अधिक लोगों ने भाग लिया। पर्यवेक्षकों के मुताबिक जैसे-जैसे ट्रंप प्रशासन अधिकारों का अपने हाथ में केंद्रीकरण कर रहा है और उदारवादी संस्थाओं एवं मूल्यों पर उसके हमले तेज हो रहे हैं, उसके विरोध में लिबरल समूहों की गोलबंदी भी मजबूत हो रही है। ट्रंप ने इसी क्रम में एंटीफा (एंटी-फासिस्ट) नाम के संगठन को प्रतिबंधित कर दिया है। यह आम धारणा बनी है कि ट्रंप और उनका प्रशासन जिस स्तर पर अभिव्यक्ति और नैतिकता की निगरानी और नागरिकों को दंडित करने का माइक्रो-मैनेजमेंट कर रहे हैं, वैसा शायद ही पहले कभी अमेरिका में देखा गया हो। (Behind the Curtain: It won’t stop with Trump)

जाहिरा तौर पर उपरोक्त बात अमेरिका के श्वेत नागरिकों के संदर्भ में है। वरना, अफ्रीकन-अमेरिकन, मूलवासी और अल्पसंख्यक समूहों के साथ तो ऐसे व्यवहार की अमेरिका में लंबी परंपरा रही है। यह जरूर है कि 1950-60 के दशकों में चले सिविल लिबर्टीज मूवमेंट के बाद ऐसी घटनाएं कम हो गई थीं, मगर अब इनमें फिर से इजाफा दर्ज हुआ है। खास बात यह है कि ट्रंप प्रशासन के साथ उनके मागा (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) मूवमेंट के कंजरेविट और धुर-दक्षिणपंथी समूह भी हैं, जो इस परियोजना को जमीनी स्तर पर लागू करने में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। इस समूह से जुड़े लोग खुलेआम गृह युद्ध की संभावनाएं जा रहे हैं। (ICE Protests and Antifa Riots: Tucker Carlson Warns of Total Destruction if America Doesn’t Act Fast)। ट्रंप के पूर्व वैचारिक गुरु स्टीव बेनन ने तो यहां तक कहा है कि कंजरवेटिव समूहों ने जल्द लिबरल-लेफ्ट हलकों पर कब्जा नहीं जमाया, तो गृह युद्ध शुरू होने में ज्यादा वक्त नहीं बचा है। (Tucker Responds to the Text Message Scandals and What It Reveals About the Dark Desires of the Left)।

हमने यहां अमेरिका के हालात का जिक्र इसलिए कुछ अधिक विस्तार किया, क्योंकि अमेरिका खुद को सबसे पुराना (लिखित संविधान के साथ) लोकतंत्र बताता है। दावा किया जाता है कि संवैधानिक लोकतंत्र एवं निर्वाचित व्यवस्था का वह सबसे सफल प्रयोग है। ट्रंप परिघटना के उदय के बाद दो बार वहां चुनाव के जरिए सरकार बदल चुकी है। मगर इन सबसे समाधान तो दूर, जमीनी स्तर पर ध्रुवीकरण ज्यादा तीखा ही हुआ है। और अब हालात ऐसे हैं कि खुलेआम गृह युद्ध की बात होने लगी है।

तो इस सारे घटनाक्रम का सार क्या है?

दुनिया के सबसे पुराने से लेकर सबसे बड़े लोकतंत्र तक में अगर कुछ समान अवांछित प्रवृत्तियां दिख रही हों- और उनसे समान चिंताएं पैदा हो रही हों, तो यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि अब वक्त समस्या को व्यक्ति या देश विशेष की परिस्थितियों के संदर्भ में समझने का नहीं, बल्कि उनकी समानताओं में समझने का है। गौरतलब यह है कि जेन-जी के प्रतिरोध या गहरे सामाजिक ध्रुवीकरण की स्थितियां उन देशों में तीव्र हुई हैं, जहां माना जाता था कि लोकतंत्र जन भावनाओं की अभिव्यक्ति से संचालित व्यवस्था है, इसलिए वहां उथल-पुथल की गुंजाइश नहीं रहती। निर्वाचन एवं प्रतिनिधित्व की व्यवस्था लोगों में यह अहसास बनाए रखती है कि व्यवस्था के मालिक वे ही हैं, जिनके वोट से सरकारें और उनकी नीतियां बनती हैं।

मगर अब साफ है कि दुनिया भर में लोगों का ऐसा भरोसा टूट रहा है। उन्हें नहीं लगता कि उनके वोट से कुछ खास तय होता है। वोट से सत्ता के सर्वोच्च स्तरों पर चेहरे जरूर बदलते हैं, लेकिन नीतियां नहीं बदलतीं। नतीजतन, कथित लोकतंत्र और लोगों के जीवन-स्तर के बीच का संबंध (अगर कभी था, तो) टूट गया है। यह एक ऐसी स्थिति है, जिस पर बड़े पैमाने पर गंभीर विचार-विमर्श की आवश्यकता है। आवश्यकता लोकतंत्र के अर्थ और लक्ष्य पर बहस की है। मुद्दा यह है कि लोकतंत्र सत्ता में भागीदारी का अहसास देने का एक भावनात्मक जरिया भर है, या इसका मकसद लोगों को गरीबी और अवसरहीनता से मुक्ति दिलाना भी है, ताकि सभी लोग अपने जीवन की पूरी संभावनाओं को हासिल कर सकें?

बेशक, युवाओं में विद्रोही तेवर होना कोई नई बात नहीं है। जेन-जी कोई नई परिघटना नहीं है। मगर पिछले एक सदी में जब कभी युवाओं ने ऐसे तेवर अपनाए, तो लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंदर विकल्प होने का भरोसा उनमें बना रहता था। उदाहरण के तौर जेपी आंदोलन और असम आंदोलन से लेकर अन्ना आंदोलन तक पर गौर किया जा सकता है। इसलिए आंदोलन संवैधानिक लोकतंत्र के दायरे में बने रहे। मगर अब जो नेपाल- या उसके पहले श्रीलंका या बांग्लादेश में हुआ या अभी दुनिया के कई देशों में होता दिख रहा है, उसमें यह दायरा तोड़ने की प्रवृत्ति साफ देखी जा सकती है। यह समझने की जरूरत है कि इस स्थिति के अर्थ को सिर्फ अशांति का जोखिम उठाते हुए नजरअंदाज किया जा सकता है।

Exit mobile version